गुरुवार, 18 जुलाई 2019

उम्मीद

आज तक की अपनी जिंदगी में कभी मुश्किलों से भागा नहीं, मगर आज पहली बार ऐसा लग रहा है के "काश इन मुश्किलों से समझौता हो जाता " | कभी कभार लगता है मानो रेत दबा रखा हो हाथों में, लाख चाहो! फिसल ही जाती है | न तो ख़ुशी है किसी चीज के होने का और ना गम है सब कुछ खो जाने का, हाँ एक डर है सबकुछ होते हुए भी पास कुछ न होने का | अपने सामने सब कुछ फिसलता देख रहा हूँ, और उनको रोक पाने की हर कोशिश नाकाम सी होती जा रही है | कुछ आँखे हर वक़्त गीली होना चाहती है मगर जो दुःख में है वो न रो पड़े इसकेलिए उसे हंसना पड़ता है, परिवार की सबसे कमजोर कड़ी को ढाल बन के खड़ा होना पड़ता है, "क्यूंकि शायद ये वक़्त हमारा नहीं है "|


5 टिप्‍पणियां:

  1. शायद यह हर उस व्यक्ति के बीच बहुत सामान्य परिदृश्य है जो कथावाचक के आयु वर्ग का है। कई बार कवि और पाठक के परिप्रेक्ष्य में विचलन होता है लेकिन जब यह वर्णन करता है पाठक के आपबीती तो वो रचना महान बन जाती है। यह अवधारणा स्टैंड-अप कॉमेडी के लिए भी बहुत प्रासंगिक है । बहुत बहुत शुभकामनाएं। यह निर्माण बहुत अधिक सम्बंधित है।

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