शुक्रवार, 27 दिसंबर 2019

फ़रेब

लफ्ज़ थम जाते हों मगर दिल का दर्द छिपाया नहीं जा सकता। तआ'रूफ के लिए बस इतना कह दूं, जिन्हें भी खुदा ने यह सरमाया बख्श दी, सख्सियत ही बदल जाती है उनकी और सख्सियत बदलने की ताकत भी।
फरेब से दूरी कायम रखना जरा मुश्किल मसला है, इनके रफिकाने अंदाज से सभी राब्ता रखते हैं क्योंकि कुछ की तो ये मिल्कियत होती है, कुछ मेरे जैसे बंदे इस मर्ज का दवा करने में मसरूफ हैं। इस पेचीदा एल्गोरिथम को समझना जरा कठिन जान पड़ता है, क्योंकि इस व्यूह रचना को भेद पाने के लिए हमारा दिल और दिमाग दोनों मुख्तलिफ तरीके से काम करना चाहिए। पर ऐसे दर्द भरे पल बस तन्हाई के समय में कायम हो पाते हैं,और शायद तब तक काफी वक़्त बीत चुका होता है। ऐसे नाजुक हालात में हमारा दिमाग और दिल हमारे साथ नहीं होता, तब तक शायद हम भी फरेब सीख चुके होते हैं, खुद से फरेब करना।
इश्क़ में तफरी करता हुआ आपका दिल अगर कहीं एकांत ढूंढे, आपके दिल की चुभन खामोशियां कायम करे और दिमाग पे हावी हो जाए तो समझ जाए कि मसला हो गया है,आप चपेट में आ गए हैं इन कमबख्त के। ऐसे नाजुक वक़्त में भी कुछ लोग तो बस खुद को तसल्ली देते हैं सब खैरियत होने की, पर हकीकत से वो अनजान भी नहीं होते। मेरे खयाल में उनकी कोई गलती नहीं है, चारो ओर इतना इत्मीनान जो दिखता है। भरम होना लाजमी है।
गलती हो जाती है हम बेचारों से की हम अंदर नहीं झांक के देखते हैं। आखिर ऐसा हो भी क्यों ना, वो जो पाक ख़्वाब वाली दुनिया जो कायम की जाती है भला कौन बाहर निकालना चाहता है उससे। आकाश रंजन ने फरेब को बारीकी से पेश किया है

आयनों से यूं ही फरेब करता रहा हूं मैं,
ना चाहते हुए भी मुस्कुराता रहा हूं मैं।

खुद की खुदी को जानना होगा, वरना कुछ एक हसीन पल और कुछ पाक ख़्वाब के चक्कर में बेतहाशा दर्द ना झेलना पड़े।

बुधवार, 25 दिसंबर 2019

विपक्षप्रिय राजनेता : अटल

अभी जब मैं ये आलेख लिख रहा हूं,उस वक्त देश में तनाव,खिंचाव के चरम बिंदु पर अवस्थित आक्रोशपूर्ण, हिंसक माहौल है,जहां लोग इतने संवेदना-शून्य हो गये हैं कि एक-दूसरे का खून करने पर उतारु हैं। मैं इस सारी  समस्याओं का जङ लोगों का अहंकारी स्वभाव,संवादहीनता और एक-दूसरे के प्रति पाला गया पूर्वाग्रह से ग्रसित घृणा को मानता हूं।आज के इस जहरीले माहौल में यदि हमें किसी चीज की सर्वाधिक उपयोगी है तो वो है आपसी सद्भाव और परस्पर इज्जत और लगाव और इस सभी गुणों के आदर्श पुरुष हैं अटल बिहारी वाजपेयी।जो किसी भी प्रकार के मनमुटाव,विरोध से उपर उठकर लोगों का अपार स्नेह और सम्मान करते थे।
मुझे याद है,जब 2006 के संसद के शीतकालीन सत्र में भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी(मार्क्सवादी)के बङे नेता और तत्कालिन लोकसभा अध्यक्ष श्री सोमनाथ चटर्जी ने सदन में अनाज के बदले तेल घोटाला मामले के हंगामे में कुछ सरकारी कामकाज निपटा लिये।इससे खफा होकर रा.ज.ग. ने ना सिर्फ उनका बहिष्कार किया, बल्कि उन पर पक्षपात का आरोप लगाते हुए पत्र भी लिखा।उस समय अटलजी रा.ज.ग. के अध्यक्ष थे,इसलिए पत्र में पहला हस्ताक्षर भी उन्हीं का था।पत्र में वाजपेयी के हस्ताक्षर देखते ही सोमनाथ भावुक हो गये।उन्होने तत्काल देने का फैसला किया।
इसकी सूचना मिलते ही वाजपेयी दौङकर चटर्जी के पास पहुंचे और उन्हें ये कहकर इस्तीफा देने के लिये रोक दिया कि उन्होने स्वेच्छा से नहीं बल्कि पार्टी लाईन के तहत पत्र पर हस्ताक्षर किये हैं।सोमनाथ ने कहा कि अगर वाजपेयी को उनके इमानदारी पर शक है तो वह पल भर भी पद पर नहीं रहना चाहते,तब अटल जी ने कहा कि निजी तौर उन्हें चटर्जी की इमानदारी पर कोई शक नहीं है।इसका खुलासा खुद सोमनाथ चटर्जी ने अपना कार्यकाल पूर्ण होने के कुछ दिन पहले किया था।
इतने संवेदनशील थे अटलजी,ये जानते हुए सोमनाथ चटर्जी धुर विरोधी पार्टी के हैं, उनके इस्तीफे से अपने पार्टी के सदस्यों का मनोबल उंचा ही होता लेकिन अपने मतभेद को मनभेद में नहीं बदलने दिया।उनसे संवाद करने में तनिक भी देरी नहीं की।निजी अहंकार को कतई आङे नहीं आने दिया। आज के इस विपरीत समय में हमारे समाज को अटलजी की ये संवेदनशीलता और निश्चल स्नेह सीखने लायक है।


सोमवार, 23 दिसंबर 2019

अवलोकन

मेरे ही जैसे आपलोग को भी अपने व्हाट्सएप ग्रुप पर एक मैसेज आया होगा कभी न कभी। उस मैसेज में लिखा होता है " गांव में लोग गाय को पालते हैं और शहरों में गाय आवारा घूमती है। गांव में कुत्ते आवारा घूमते हैं और शहरों में पाले जाते हैं।"

न जाने क्यों इन बातों से बू आती है, सोच के सड़न की बू। ये सोच की शहर के लोगों की मानसिकता बिलकुल विपरीत है गांव के लोगों से। ये सोच की शहर के लोग गौ माता का अनादर करते हैं। ये मैसेज बहुत छोटी थी, मगर इस छोटे से मैसेज से एक दूरी है जो गहरा जाती है शहर और गांव के लोगों के रिश्तों के बीच।

दफ़्न होता है जहां आकर नई पीढ़ी का प्यार,
शहर की गलियों का वो गन्दा असर है ज़िन्दगी।

अदम गोंडवी जी की ये पंक्तियां है, खासा नाराज़ नज़र आते हैं शहरों में किये जाने वाले मोहब्बत से, खैर हर किसी की तरह सबकी अपनी एक सोच होती है उन्हें बदला नही जा सकता। लेकिन ये बात भी झुठलाई नही जा सकती के गांव में इश्क़ करना अपने और अपने मेहबूब की बाली देने जैसा है।
जब संविधान निर्माता इस अपना बात पर सर खपा रहे थे, की किसको किस तरह के अधिकार दिए जाएं, क्या गांव को एक ऐसा हिस्सा बना कर छोड़ दिया जाए जिसमे गांव के सरपंच का फैसला ही सर्वमान्य होगा। मतलब की वैसी ही व्यवस्था जैसी की चली आ रही थी। उस वक़्त भी एक मतभेद हुआ था गांधी जी और अम्बेडकर जी में, मतभेद ये था की गांधी जी इस पक्ष में थे की गांव अपने आपको परंपरागत तरीके से चलाए, जिसमे पांच और सरपंच की न्यायिक व्यवस्था हो। मगर समाज की कुरीतियों से, भेदभाव से बाबा साहेब पहले से ही परेशान थे और उन्हें ये बात पता थी की ये भेदभाव गांव में शहर से ज्यादा है इसलिए वो इसके पक्ष में नही थे। अगर इतिहास देखेंगे तो दिखेगा के गांव ही आगे चल के जब सम्पन्न होते हैं, जब रोजगार मिलने में आसानी होती है जब जीवन यापन के लिए किसी दूसरे शहर नही जाना पड़े तब वही गांव शहर हो जाया करते हैं। कोलकाता ऐसा ही एक उदाहरण है।

जब गांव के अलावा शहरों का निर्माण हुआ तभी से एक द्वन्द सा पैदा हो गया। द्वंद इस बात का की बेहतर कौन है? जब भी कभी तुलनायें होती हैं, समाज धरों में बंट जाती है। किसी को किसी से नफरत नही होती हाँ एक मन मोटाव पैदा हो जाता है। कोई अपने आपको कम नही समझता तभी तो गांव में अक्सर ये सुनने को मिलता है की "शहरी न बनो ज्यादा" और शहरों में ये कहा जाता है की " गंवार हो क्या"। ये एक दूरी है जिसका होना तय था, क्योंकि शहर और गांव अपने आप में दो बेहतरीन जगह है एक सुविधाओं से लैस है तो एक प्रकृति के बेहद नज़दीक। गायें गांव की जरूरत है और कुत्ते शहरों की। अपने जरूरतों की पूर्ति में कोई कमतर कैसे हो सकता है। मैं गांव से निकल कर शहर में रहने लग गया हूँ बस इसीलिए ये दूरी मुझे पसंद नही आती।

©vatsa_akash
Akash Ranjan
आकाश रंजन

शनिवार, 21 दिसंबर 2019

जायज सवाल

इन दिनों एक वीडियो काफी वायरल हो रहा है। जिसमे एक व्यक्ति एक मंच से कुछ बातें कर रहा है। उन बातों में नफरत है, किसी एक धर्म विशेष के लोगों के लिए। यहां तक कहा गया की हम (यानी के हिन्दू धर्म) खतरे में हैं, हमे इसे बचना है, और इसको बचाने के रास्ते मे जो कोई भी आएगा उसको छोड़ेंगे नही। उस व्यक्ति ने ये भी कहा की शाखा में जो शिक्षा दी जाती है उसके अलावा AK47 की भी शिक्षा दी जाए।
ये बातें किसी एक व्यक्ति विशेष की हो सकती है, इस विचारधारा को बनने में उसकी एक उम्र गई है, मैं ना तो किसी राजनीतिक पार्टी पे सवाल करना चाहता हूँ न ही संघ के लोगों पर।
मेरे सवाल है उन लोगों से जो उसकी बातों पर "जय श्री राम" के नारे लगा रहे थे। तालियां बजा कर समर्थन दे रहे थे। क्या हम किसी से इतनी नफरत करने लग गए हैं की जान लेने की बात करने लग जाये और उन घटिया बातों पर तालियां बजे?
हिंदुत्व पर आज सवाल उठने लगे गए हैं, श्री राम का नाम ले कर बहुत से काम हो रहे है। जब ये हाल देखता हूँ तो अपनी बचपन कि कहानी याद आ जाती है।

मैं जब छोटा था तब कुत्तों से बहुत डरता था, बैरहाल आज भी डर बरकार है। तो मैं जब भी कहीं अकेले जाता तो साथ मे पत्थर रख लेता, ये मानते हुए के क्या पता कहीं कुत्तों से मुकाबला न करना पड़ जाए, लेकिन कभी ऐसा हुआ नही। बल्कि इसके उलट मैं ही पहले पत्थर फेक कर अपने आप को सुरक्षित कर लेता था। एक रोज़ ये सब मेरी दादी ने देखा और मुझे बुला कर ये कहा की "कुत्तों को मत मारो"। बच्चे का सवाल तैयार था और डर भी "क्यों न मारे, काट लेगा तो"। मेरी दादी ने प्यार से समझाया की जब तक मैं उसे बहुत तंग न कर दूं तब तक वो मुझे कोई नुकसान नही पहुचायेगा। मैं फिर भी ज़िद करने लगा की नही काट लेगा फिर? दादी ने कहा की कुत्ते भगवान होते हैं, मैंने फिर पूछा कि कैसे भगवान होते हैं? तो मुझे बताया गया की काली मां के साथ जो एक कुत्ता होता है वो भैरव बाबा हैं, भगवान हैं। ये सुन के मैं डर गया की अब तक मैं भगवान पर पत्थर मरता था, अब डर कहो या कुछ और मैंने कुत्तों पर पत्थर फेंकने बंद कर दिया।
हिंदू धर्म ये है जिसमें जानवर भी भगवान स्वरूप हैं। ना जाने हम कबसे हिंसा की बात करने लग गए। किसी को दुख पहुचा कर किसी को मार कर जय श्री राम के नारे, न जाने हम क्यों लगाने लग गए? किसी धर्म विशेष को गाली देने से, मुझे नही पता के मेरे राम कितने बड़े हो जाएंगे।

इसके बाद मेरे कई दोस्त कहेंगे के मुस्लिम नेता भी तो ऐसा नफरत फैलाने वाला बयान देते हैं उनको क्यों नही कुछ कहते? तो जवाब ये रहा- के मैं हिन्दू धर्म मे पैदा हुआ, पला तो इसकी जानकारी ज्यादा है, मैं अपना घर देख रहा हूँ, और नफरत फैलने वाला किसी भी धर्म का हो अच्छा तो नही ही है वो।

बुधवार, 11 दिसंबर 2019

लूज़ टॉक की गहरी बात..

हारमोनियम वाले चच्चा काफी चर्चे में हैं आज कल, आपने काफी कुछ सुना भी होगा, के चच्चा बहुत बड़े वाले कॉमेडियन थे, हालांकि अब नही रहे। लूज़ टॉक भी चर्चे में है, काफी meme बन रहे हैं, अबे साले.... वालिद जो थे अब्बा हमारे.... वगेरा वगेरा। आप सोच रहे होंगे की ये बातें अब तो out of trend चला गया है फिर ये ब्लॉग क्यों?

लूज़ टॉक के हारमोनियम वाला एपिसोड के अलावा भी कई ऐसे एपिसोड हैं जो काफी मजेदार हैं। जिसमें काफी अच्छी कॉमेडी है, आज कल के standup जैसी नही के लोगों को हंसी आये तो गाली दे दी।
जरा एक दफा सोचिये, ये कलाकार पाकिस्तान के थे, पाकिस्तान के हालात कभी भी बेहतर नही थे, आर्मी का शाषण रहा है हमेशा से, मतलब की बोलने की आज़ादी तक नही, ऐसे में लूज़ टॉक करना और इतनी सफाई से सत्ता पर चोट करना आम बात नही। साथ ही पाकिस्तान की हुकूमत को दाद के उन्होंने इनके खिलाफ कोई करवाई नही की। जरा सोचिए अगर यही काम आज के हिंदुस्तान में हो रहा होता तो इनके साथ क्या कुछ नही हुआ होता। जबकी हमारे यहां सेना का शाषण भी नही, बोलने की आज़ादी भी है, मगर सरकारों में सुनने की क्षमता नही है। वो आलोचनाओं से डरने लगे हैं, और आलोचना करने वालों को डराने भी लगे हैं। ये महज़ आज की बात नही है जब ऐसा हो रहा है ये एमरजेंसी के दौरान भी हुआ था, मगर तब आलोचना करने वाले अपने हक़ के लिए लड़ रहे थे और आज घुटने टेक चुके हैं। अटल जी कहा करते थे "आलोचनाओं से ही व्यक्ति महान होता है" ।