मेरे ही जैसे आपलोग को भी अपने व्हाट्सएप ग्रुप पर एक मैसेज आया होगा कभी न कभी। उस मैसेज में लिखा होता है " गांव में लोग गाय को पालते हैं और शहरों में गाय आवारा घूमती है। गांव में कुत्ते आवारा घूमते हैं और शहरों में पाले जाते हैं।"
न जाने क्यों इन बातों से बू आती है, सोच के सड़न की बू। ये सोच की शहर के लोगों की मानसिकता बिलकुल विपरीत है गांव के लोगों से। ये सोच की शहर के लोग गौ माता का अनादर करते हैं। ये मैसेज बहुत छोटी थी, मगर इस छोटे से मैसेज से एक दूरी है जो गहरा जाती है शहर और गांव के लोगों के रिश्तों के बीच।
दफ़्न होता है जहां आकर नई पीढ़ी का प्यार,
शहर की गलियों का वो गन्दा असर है ज़िन्दगी।
अदम गोंडवी जी की ये पंक्तियां है, खासा नाराज़ नज़र आते हैं शहरों में किये जाने वाले मोहब्बत से, खैर हर किसी की तरह सबकी अपनी एक सोच होती है उन्हें बदला नही जा सकता। लेकिन ये बात भी झुठलाई नही जा सकती के गांव में इश्क़ करना अपने और अपने मेहबूब की बाली देने जैसा है।
जब संविधान निर्माता इस अपना बात पर सर खपा रहे थे, की किसको किस तरह के अधिकार दिए जाएं, क्या गांव को एक ऐसा हिस्सा बना कर छोड़ दिया जाए जिसमे गांव के सरपंच का फैसला ही सर्वमान्य होगा। मतलब की वैसी ही व्यवस्था जैसी की चली आ रही थी। उस वक़्त भी एक मतभेद हुआ था गांधी जी और अम्बेडकर जी में, मतभेद ये था की गांधी जी इस पक्ष में थे की गांव अपने आपको परंपरागत तरीके से चलाए, जिसमे पांच और सरपंच की न्यायिक व्यवस्था हो। मगर समाज की कुरीतियों से, भेदभाव से बाबा साहेब पहले से ही परेशान थे और उन्हें ये बात पता थी की ये भेदभाव गांव में शहर से ज्यादा है इसलिए वो इसके पक्ष में नही थे। अगर इतिहास देखेंगे तो दिखेगा के गांव ही आगे चल के जब सम्पन्न होते हैं, जब रोजगार मिलने में आसानी होती है जब जीवन यापन के लिए किसी दूसरे शहर नही जाना पड़े तब वही गांव शहर हो जाया करते हैं। कोलकाता ऐसा ही एक उदाहरण है।
जब गांव के अलावा शहरों का निर्माण हुआ तभी से एक द्वन्द सा पैदा हो गया। द्वंद इस बात का की बेहतर कौन है? जब भी कभी तुलनायें होती हैं, समाज धरों में बंट जाती है। किसी को किसी से नफरत नही होती हाँ एक मन मोटाव पैदा हो जाता है। कोई अपने आपको कम नही समझता तभी तो गांव में अक्सर ये सुनने को मिलता है की "शहरी न बनो ज्यादा" और शहरों में ये कहा जाता है की " गंवार हो क्या"। ये एक दूरी है जिसका होना तय था, क्योंकि शहर और गांव अपने आप में दो बेहतरीन जगह है एक सुविधाओं से लैस है तो एक प्रकृति के बेहद नज़दीक। गायें गांव की जरूरत है और कुत्ते शहरों की। अपने जरूरतों की पूर्ति में कोई कमतर कैसे हो सकता है। मैं गांव से निकल कर शहर में रहने लग गया हूँ बस इसीलिए ये दूरी मुझे पसंद नही आती।
©vatsa_akash
Akash Ranjan
आकाश रंजन
न जाने क्यों इन बातों से बू आती है, सोच के सड़न की बू। ये सोच की शहर के लोगों की मानसिकता बिलकुल विपरीत है गांव के लोगों से। ये सोच की शहर के लोग गौ माता का अनादर करते हैं। ये मैसेज बहुत छोटी थी, मगर इस छोटे से मैसेज से एक दूरी है जो गहरा जाती है शहर और गांव के लोगों के रिश्तों के बीच।
दफ़्न होता है जहां आकर नई पीढ़ी का प्यार,
शहर की गलियों का वो गन्दा असर है ज़िन्दगी।
अदम गोंडवी जी की ये पंक्तियां है, खासा नाराज़ नज़र आते हैं शहरों में किये जाने वाले मोहब्बत से, खैर हर किसी की तरह सबकी अपनी एक सोच होती है उन्हें बदला नही जा सकता। लेकिन ये बात भी झुठलाई नही जा सकती के गांव में इश्क़ करना अपने और अपने मेहबूब की बाली देने जैसा है।
जब संविधान निर्माता इस अपना बात पर सर खपा रहे थे, की किसको किस तरह के अधिकार दिए जाएं, क्या गांव को एक ऐसा हिस्सा बना कर छोड़ दिया जाए जिसमे गांव के सरपंच का फैसला ही सर्वमान्य होगा। मतलब की वैसी ही व्यवस्था जैसी की चली आ रही थी। उस वक़्त भी एक मतभेद हुआ था गांधी जी और अम्बेडकर जी में, मतभेद ये था की गांधी जी इस पक्ष में थे की गांव अपने आपको परंपरागत तरीके से चलाए, जिसमे पांच और सरपंच की न्यायिक व्यवस्था हो। मगर समाज की कुरीतियों से, भेदभाव से बाबा साहेब पहले से ही परेशान थे और उन्हें ये बात पता थी की ये भेदभाव गांव में शहर से ज्यादा है इसलिए वो इसके पक्ष में नही थे। अगर इतिहास देखेंगे तो दिखेगा के गांव ही आगे चल के जब सम्पन्न होते हैं, जब रोजगार मिलने में आसानी होती है जब जीवन यापन के लिए किसी दूसरे शहर नही जाना पड़े तब वही गांव शहर हो जाया करते हैं। कोलकाता ऐसा ही एक उदाहरण है।
जब गांव के अलावा शहरों का निर्माण हुआ तभी से एक द्वन्द सा पैदा हो गया। द्वंद इस बात का की बेहतर कौन है? जब भी कभी तुलनायें होती हैं, समाज धरों में बंट जाती है। किसी को किसी से नफरत नही होती हाँ एक मन मोटाव पैदा हो जाता है। कोई अपने आपको कम नही समझता तभी तो गांव में अक्सर ये सुनने को मिलता है की "शहरी न बनो ज्यादा" और शहरों में ये कहा जाता है की " गंवार हो क्या"। ये एक दूरी है जिसका होना तय था, क्योंकि शहर और गांव अपने आप में दो बेहतरीन जगह है एक सुविधाओं से लैस है तो एक प्रकृति के बेहद नज़दीक। गायें गांव की जरूरत है और कुत्ते शहरों की। अपने जरूरतों की पूर्ति में कोई कमतर कैसे हो सकता है। मैं गांव से निकल कर शहर में रहने लग गया हूँ बस इसीलिए ये दूरी मुझे पसंद नही आती।
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