लफ्ज़ थम जाते हों मगर दिल का दर्द छिपाया नहीं जा सकता। तआ'रूफ के लिए बस इतना कह दूं, जिन्हें भी खुदा ने यह सरमाया बख्श दी, सख्सियत ही बदल जाती है उनकी और सख्सियत बदलने की ताकत भी।
फरेब से दूरी कायम रखना जरा मुश्किल मसला है, इनके रफिकाने अंदाज से सभी राब्ता रखते हैं क्योंकि कुछ की तो ये मिल्कियत होती है, कुछ मेरे जैसे बंदे इस मर्ज का दवा करने में मसरूफ हैं। इस पेचीदा एल्गोरिथम को समझना जरा कठिन जान पड़ता है, क्योंकि इस व्यूह रचना को भेद पाने के लिए हमारा दिल और दिमाग दोनों मुख्तलिफ तरीके से काम करना चाहिए। पर ऐसे दर्द भरे पल बस तन्हाई के समय में कायम हो पाते हैं,और शायद तब तक काफी वक़्त बीत चुका होता है। ऐसे नाजुक हालात में हमारा दिमाग और दिल हमारे साथ नहीं होता, तब तक शायद हम भी फरेब सीख चुके होते हैं, खुद से फरेब करना।
इश्क़ में तफरी करता हुआ आपका दिल अगर कहीं एकांत ढूंढे, आपके दिल की चुभन खामोशियां कायम करे और दिमाग पे हावी हो जाए तो समझ जाए कि मसला हो गया है,आप चपेट में आ गए हैं इन कमबख्त के। ऐसे नाजुक वक़्त में भी कुछ लोग तो बस खुद को तसल्ली देते हैं सब खैरियत होने की, पर हकीकत से वो अनजान भी नहीं होते। मेरे खयाल में उनकी कोई गलती नहीं है, चारो ओर इतना इत्मीनान जो दिखता है। भरम होना लाजमी है।
गलती हो जाती है हम बेचारों से की हम अंदर नहीं झांक के देखते हैं। आखिर ऐसा हो भी क्यों ना, वो जो पाक ख़्वाब वाली दुनिया जो कायम की जाती है भला कौन बाहर निकालना चाहता है उससे। आकाश रंजन ने फरेब को बारीकी से पेश किया है
आयनों से यूं ही फरेब करता रहा हूं मैं,
ना चाहते हुए भी मुस्कुराता रहा हूं मैं।
खुद की खुदी को जानना होगा, वरना कुछ एक हसीन पल और कुछ पाक ख़्वाब के चक्कर में बेतहाशा दर्द ना झेलना पड़े।
Bhai garda likhte ho yrr hmesa ki trh
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