AIIMS में दवाइयों की लाईन में लगा था, लाईन काफी लम्बी थी, बहुत इन्तजार के बाद मेरा नंबर आने वाला था। तभी अचानक एक महिला मेरे आगे आ गई, बिना लाइन में लगे। मैंने रोका और कहा की लाइन से आ जाइये, तो उन्होंने मुझ से कहा की महिला हूँ लगने दीजिये।
महिला कमजोर की पर्याय क्यों बन जाती है। क्यों नारी सशक्तिकरण के नारों के बाद भी वो खुद को कमजोर मानती हैं। या तो ये महिलाओं का दोहरा चरित्र है या फिर वो कभी सशक्त हो ही नही पाई।
दिल के बहलाने का सामान न समझा जाये,
मुझको अब इतना भी आसान न समझा जाएं।
मैं भी दुनियां की तरह जीने का हक़ मांगती हूँ,
इसको गद्दारी का ऐलान न समझा जाये।
मेरी पहचान को अगर काफी है मेरी शनाख्त,
मुझको फिर क्यों मेरी पहचान न समझा जाएं।
ये चंद शेर रेहाना रूही के हैं, समाज के दकियानूसी ख्यालों से परेशान दिखते हैं ये शेर। इन ख़्यालों में एक टीस नज़र आती है, जो जीने का हक़ मांग रही है। जीना सिर्फ सांस लेना और खाना नही होता, जीने का अगर सही मतलब जानना हो तो पिंजरे में कैद परिंदे से पूछना, उनका जवाब आज़ादी होगा। मेरी बातें शायद आपको बुरी लगे शायद आप मेरी बातों को नकार दें, और यही तो सत्य की नियति है, नकार दिया जाना।
माँ सीता अवतरित हुईं थीं,दैवीय शक्तियां थीं उनमें, चाहती तो रावण को अपने तेज़ से ही भष्म कर देती, मगर ऐसा कुछ हुआ ही नहीं। माता सीता तो सशक्त भी थीं और नारी भी, फिर भी उन्होंने वो नही किया जो वो कर सकती थी, अब भले ही जो भी कारण रहा हो। माता अनुसूया की कहानी से तो वाकिफ होंगे आप, की कैसे त्रिदेवियाँ परेशान हो गई थीं माता अनुसूया की पतिव्रता होने पर, और किस तरह से ब्रह्मा, विष्णु और महेश गए थे एक ऋषि का वेश धारण कर के, आगे की कहानी लिखूंगा तो कईयों की भावनायें को ठेस पहुंचेगी, और मैं मुद्दे से भटक जाऊंगा, मुद्दा ये के नारियों का सशक्त न हो पाने की ज़िम्मेदारी किसकी?
ये दो नारियां तो किस्से कहानियों में सुनी गई हैं, जिसमें कहीं न कही नारी खुद जिम्मेदार हैं, कभी अपने आपको रोक लेने के लिए और कभी अपने से बेहतर किसी अन्य स्त्री के खिलाफ साजिश कर के। लेकिन याद रहे एक नारी और थी जिन्हें शक्ति-स्वरूपा माना जाता है।माँ दुर्गा, सशक्त नारी, इतना तेज, इतना सौंदर्य की आंखें चौंधिया जाएं, और जब असुरों से लड़ी तो किसी योद्धा से कम नहीं लगीं।
इक़बाल बानो इन दिनों चर्चे में थी, क्योंकि सालों पहले जिया-उल-हक की तानाशाही के खिलाफ लगभग 50 हज़ार की भीड़ के सामने "हम देखेंगे" जैसी तानाशाह विरोधी नज़्म गाया था, वो भी काली साड़ी पहन कर, बता दूं की जिया-उल-हक की तानाशाही में साड़ी और काले रंग दोनो पर प्रतिबंध था। उनका ये हिम्मत दिखाना काबिल-ए-तारीफ है। ऐसी कई महिलाएं हैं,जिन्होंने पुरुष प्रधान समाज को चुनौती दी, जिसने पर्दा प्रथा को चुनौती दी, जिसने ये बता दिया कि बेटे ही नही बेटियां भी वो सब कर सकतीं है जिसकी उम्मीद बेटों से की जाती है।
आज जब मैं ये लिख रहा हूँ तो इसके पीछे सुप्रीम कोर्ट का एक जजमेंट है जो असल मायनों में नारी सशक्तीकरण को बढ़ावा देता है। पिछले 15 साल से कुछ याचिकाएं डाली गईं थी कोर्ट में, जिन पर फैसला होना था और हुआ। याचिका क्या थी? वो ये थी कि सेना में महिलाओं को कमांडिंग अफसर क्यों नही बनने दिया जाता है, क्यों महिलाओं को सिर्फ 14 साल की नौकरी ही करने दी जाती है,क्यों महिलाओं को सेना से पेंशन उस हिसाब से नही मिलता जिस हिसाब से पुरुषों को मिलता है। सवाल कई थे, मगर इन सवालों में घिरी थी एक चीज "महिला" और जिन सोच से वो लड़ रही थी वो सोच पुरुष प्रभुसत्ता को बढ़ावा देता है। "महिलाएं शारीरिक क्षमताओं में पुरुषों से कमतर होती हैं, उनको बच्चे संभालने होते हैं, घर संभालने होते है, वो निर्णय नही ले पाती। सेना में काम कर रहे जवान क्योंकि गांव-कस्बों से आते हैं तो उनकी मानसिकता अभी इस चीज के लिए तैयार नही हुई है की वो एक महिला के निर्देशों के हिसाब से चले।" ये तमाम दलिलें मेरी नही हैं और न ही मैं इन दलीलों का समर्थन करता हूँ, ये दलिलें सरकार ने पेश की और इस बिनाह पर महिलाओं को कमांडिंग अफसर का पद न देने पर अपनी राय रखी। वहीं दूसरी तरफ एक महिला खङी थी, जो महिलाओं के अधिकार के लिए लड़ रही थी, नाम मीनाक्षी लेखी, पेशे से वकील और भारतीय जनता पार्टी से मेम्बर ऑफ पार्लियामेंट है, लेकिन इस बार उन्होंने खुद के सरकार के खिलाफ आवाज़ उठा के नारियों के हक़ के लिए लड़ना पसंद किया। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने ऐतिहासिक फैसले में कहा की "महिलाओं को कमांडिंग अफसर का पद न देना दकियानूसी है, वक़्त के साथ समाज को बदलना पड़ेगा।" ......
मैं इतने पर रुक जाना चाहता था मगर तभी याद आया, की ये जो सर्वोच्च न्यायालय है इसके एक मुख्य न्यायाधीश होते हैं अंग्रेजी में उसे Chief Justice of India (CJI) कहा जाता है, आज तक इस पद पर एक भी महिला नही आ सकी हैं, सुप्रीम कोर्ट जब सरकार को दकियानूसी बता रही थी शायद उसे अपना दामन दिखाई नही दिया,जरूरी है कि ऐसे माहौल बनाये जाए ताकि महिलाएं भी वहां तक पहुंच सकें।
GK में सवाल आता है की देश की पहली महिला IPS अफसर कौन बनी, जवाब में हमने रट्टा मार रखा था "किरण बेदी" वो कोई ऐसी वैसे सख्सियत नही हैं, जो सिर्फ किताबों तक सीमित रह जातीं, उन्होंने कई महिलाओं को प्रेरित किया, मगर एक लड़ाई वो भी लड़ रही थी, उनसे लड़ रही थी जिसको आमतौर पर सिस्टम कहा जाता है, लड़ रही थीं अपने हक़ के लिए, लड़ाई इस बात की थी की योग्य होने के बाबजूद भी उनको पुलिस कमिश्नर नही बनाने दिया गया, कारण उस वक़्त भी वहीं थे। अब आप अगर इस system से थोड़ा बाहर झाकेंगे तो पाएंगे की ये तथाकथित system की डोर राजनीति के हाथों में है। राजनीति और महिला सशक्तिकरण से जुड़ा एक बहुत मजबूत नाम है " इंदिरा गांधी"। आज कल देश मे हो रहे बहुत सी चीजों की ज़िम्मेदारी उनपर भी थोपी जाती है, क्या सच क्या झूठ उसपर चर्चा कभी और। कहा जाता है की इंदिरा गांधी अब कोई भी निर्णय लेती थी तो उनमें एक अलग का आत्मविश्वास नज़र आता था, हम यहां उनकी राजनीति पर चर्चा नही करेंगे। 1952 में अपनी दोस्त Dorothy Norman, को लिखे एक पत्र में इंदिरा ने लिखा
"I am in no sense a feminist, but I believe in women being able to do everything...Given the opportunity to develop, capable Indian women have come to the top at once."
ये साफ तौर पर दिखता है की कहीं न कहीं उनको भी इस बात का शक था की महिलाओं को मौके नहीं मिलते। मगर वहीं दूसरी तरफ देखा जाए तो बिहार की पहली महिला मुख्यमंत्री श्रीमती राबडी देवी जो दिनांक 25 जुलाई 1997 से पहले एक विशुद्ध पारिवारिक महिला थीं, लेकिन सीएम बनते ही सीएम की सारी सम्प्रभुता को पति के चरणों में डालकर दंडवत् हो गईं।ऐसा नहीं है कि हमारे इतिहास में तेज और शक्तिशाली महिलाएं नहीं हुईं हैं, लेकिन कहीं न कहीं ये किसी न किसी दबाव में आकर अपनी स्वतंत्रता, सम्प्रभुता को समर्पित कर दिया है।
वक़्त के साथ समाज बदल रहा है क्या? पूछिये खुद से और आंखें खोल के देखिये समाज में। लड़कियां घरों में कैद हो कर रह लेती है क्योंकि शाम के बाद सड़क पर कुछ मनचले घूमते हैं, हमें मेट्रो में एक डब्बा अलग से लगाना पड़ता है ताकि महिलाएं सुरक्षित सफर कर सके, 33% आरक्षण देना पड़ता है ताकि वो आगे बढ़े लेकिन मेट्रो में अलग डब्बा लगा देने से सोच में परिवर्तन नही आती। हम एक समाज के तौर पर जिम्मेदार हैं। अपनी बेटियों को लड़ना सिखाइये रोना नही, उनको बताइये की उसकी क्षमताओं की जद कहाँ तक है। परों को नोचने से तो बेहतर है की उनको खुले आकाश का रास्ता दिखाया जाए।