सोमवार, 27 जुलाई 2020

The Great Chamar

गांव में अचानक कुत्ते भौंकने लगे थे, मेरी उम्र छोटी थी। मैं ने डर के मारे अपनी दादी से पूछा। "दादी ये कुत्ते इस तरह भौंक क्यूं रहे हैं, और किस पर भौंक रहे है?" दादी का जवाब था "ये चमार हैं।"
ये शब्द नया था मेरे लिए, लेकिन दादी की बात से मेरे दिमाग में एक बात बैठ गई की अगर बेवजह कुत्ता आप पर भौंकने लगे तो आप चमार हैं। फिर मैं थोड़ा और बड़ा हुआ स्कूल पहुंचा दुनिया को देख पाने का अब नया ढंग आ गया था। अब "चमार" शब्द का मतलब बदल गया था, स्कूल में बच्चे दूसरे बच्चों को चमार बोल दिया करते थे क्यूंकि वो इंसान थोड़ा शाम्य दिखता था, थोड़ा गंदगी में रहता था। अब तक मेरे पास चमार शब्द के दो माने थे एक वो जो बचपन में दादी ने बताया था और एक अब जो मैं अपने दोस्तों के बीच देख रहा था। माने ये की जो शाम्य है, गंदगी में रहता है और जिस पर कुत्ते भौंकते हैं वो चमार है।

फिर इस बीच मैंने एक पोस्टर देखा लिखा था "The Great Chamar "। मैंने जानने की कोशिश की, उसी पड़ताल के बीच भीम आर्मी की बात सामने आई, और उसी के साथ सामने आया एक अरसा जिसमें जिल्लत थी, प्रताड़ना थी, अधिकारों का अतिक्रमण था। जी हां, चमार यानी डोम, दलित, हरिजन और ना जाने कितने ही नाम, ताकि वो जिल्लत की जिंदगी से ऊपर उठ सके।
"जब हरि ही हमारे नहीं, तो हम हरिजन कैसे?" ये वाक्य मेरे नहीं हैं, दलित समाज के लोगों के हैं। उनका मानना है कि पूरे समाज ने उसे वाहिष्कृत कर रखा है। ना मंदिरों में घुसने की इजाज़त, ना साथ बिठा पाने की हिम्मत। आज भी मेरे घर में एक अलग बर्तन है, जिसमें खाना सिर्फ दलितों को दिया जाता है। मेरे गांव में जो दलित छोटा मोटा काम करते हैं वो अपना कप साथ ले के चलते है, जी हां कप साथ ले के चलते हैं ताकि लोगों की उनके लिए अलग व्यवस्था ना करनी पड़े। वैसे मैं जाती धर्म पर आस्था कम रखता हूं परन्तु मैं जाती से ब्राह्मण हूं, जिसे सवर्ण माना जाता है, और हम पर सबसे ज्यादा आरोप लगते हैं दलितों की प्रताड़ना को ले कर। क्यूंकि हम ही थे जो मंदिरों में पूजा करवाते थे, हम ही थे जो गुरुकुल में शिक्षा प्रदान करते थे, हम ही थे जो समाज के नियम तय करते थे और हम ही थे जिन्होंने उन्हें इन सब से उन्हें वंचित रखा। हमारे घर कोई बच्चा पैदा होता है तो उसे डॉक्टर इंजिनियर बनाने के सपने देखते हैं और कोई दलित के घर पैदा हो गया तो फिर उसे गंदी नालियां ही साफ करनी पड़ती है, क्यूंकि मैंने आज तक किसी सवर्ण को नली साफ करते नहीं देखा, और कहीं भूले भटके कोई अम्बेडकर जैसा निकाल जाता है तो समाज उसकी खिल्लियां ही बहुत उड़ाते हैं। आज कल एक सेना काफी चर्चे में रहती है नाम है भीम आर्मी, अगर देखेंगे तो उनका रुख काफी हिंसक है लेकिन वहीं दूसरी तरफ ये एक अच्छा संकेत है की अब डर के मारे ही सही लेकिन लोग दलितों के अधिकारों के हनन नहीं करते।
हम आजाद तो हैं मगर हमारी मानसिकता अब भी गुलाम है।




गुरुवार, 27 फ़रवरी 2020

दिलों की दिल्ली से अपील

दिलों की दिल्ली

आज क्या लिखूं, कहाँ से लिखूँ समझ नही आ रहा। दिल्ली की मौजूदा हालात देख कर, लेकिन जो भी हो रहा है एकदम गलत हो रहा है, और यकीन मानो ऐसी स्थिति मैंने पहले कहीँ देख रखी है.... राकेश ओमप्रकाश मेहरा की फ़िल्म Delhi 6 में। जहां पर मज़हबी दंगे शुरू हो जाते हैं मात्रा एक बंदर की अफवाह से। जी हां फ़िल्म में एक बंदर के वजह से दंगे भड़क जाते हैं, जिसमे अभिषेक बच्चन ने कमाल की भूमिका निभाई है। मुस्लिम पक्ष कहते कि हिन्दुओं ने काले बंदर को छोड़ा है उनके इलाके में और हिन्दू पक्ष यही इल्जाम मुस्लिम समुदाय पे लगते हैं, और यकीन मानिए काला बंदर तो था ही नही बस एक अफवाह थी। काला बंदर नही बल्कि लोगों के दिल काले होगये हैं, जो अपने भाईचारे को भूल कर एक दूसरे से लड़ रहे, देश का माहौल खराब कर रहे हैं। हम सब मे कहीं ना कहीं एक काला बंदर है, मगर जरूरत है गांधी जी के बंदरों की जो अच्छा रास्ता दिखाए। हिंसा कभी भी हल नही हुआ किसी चीज़ का। दोनो पक्षों को अपनी बात अच्छे तरीके से रखना चाहिए और काले बंदर को हराना चाहिए। ये काला बंदर सामने तो नही आता लेकिन लोगों को गुमराह करता है, उनको लड़वाता है, अपनो से दूर करता है, कट्टर बनाता है। मिल कर इस काले बंदर को खत्म करना चाहिए बस गम इस बात का है कि यहां फ़िल्म की तरह कोई अभिषेक बच्चन(रौशन) नही है, देखते हैं क्या सरकार रौशन बन कर दोनों पक्षों को संतोष दिलाती है।

©सुरभि मिश्रा
Surabhi Mishra



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अपील 

न जाने कितनी बार और लिखना पड़ेगा इसी मुद्दे पर हर बार नई दलिलें कहाँ से ले के आऊँ मैं? हम क्यों आसान चीज नही समझ पाते, क्यों कोई भी हमें भड़का देता है? क्यों जरूरी है इस कदर लड़ना के दूसरों की जान का कोई मोल ही न रहे। क्या आप दंगाई हैं? नही न? हम तो आम लोग हैं जिनका कोई स्वार्थ नही है किसी को लड़ते देखने का, न कुर्सी का मोह न अपनी विचारधारा को थोपने की होड़। लेकिन फिर भी वो लोग हम ही हैं, जो मर रहे हैं और जो मार रहे हैं। दोनो तरफ से एक दूसरे के धर्मो को गाली दी जा रही है, ये सबब न तो हिन्दू धर्म सिखाता है और न इस्लाम इसकी वकालत करता है। फिर कौन हैं ये लोग जिसने आपसे ये कहा की आपका धर्म खतरे में है? पहली बात तो ऐसा कुछ है नही, और दूसरी बात की कोई धर्म इतना छोटा नही हुआ है की मुझे या आपको किसी की जान लेनी पड़े उसकी रक्षा करने के लिए।
कल लोगों को नंगा कर के उनके लिंग देख कर उनके धर्म की पुष्टि की गई और जो दूसरे तरफ का निकला वो मारा गया। धार्मिक इमारतें तोड़ी गई और उसपर तिरंगा लगाया गया ताकि सवाल न खड़े हों। वो लोग न तो धर्म की रक्षा कर रहे हैं ना ही देश की इज्जत।
यार जब विपरित प्रवृत्ति के लोग होंगे तो मनभेद भी होंगे मतभेद भी होंगे, होंगी न गलतियां उनमे भी और हममें भी, कर लेंगे धीरे धीरे ठीक, लेकिन इसके लिए किसी की जान ले लेना सही है क्या? जो इंसान इंसान की रक्षा न कर सका हो वो धर्म क्या ही बचा लेगा। लोग सरकार को कटघरे में खड़ा कर रही, लेकिन गौर से झांक के देखिये अपने अंदर क्या आपके मन मे भी जहर नही भरा था, दूसरे धर्म के लोगों के लिए, आज बस इतना हुआ की उस चिंगारी को हवा मिल गई और शहर जलने लगा।
अपनी चेतना को जगा के रखिये, लोग बरगलाने की साजिश रच रहे हैं, उनका मकसद है अशांति फैलाना, और चाहे अनचाहे आप उनको जीतने दे रहे हैं। व्हाट्सएप और ट्विटर पर फेक न्यूज़ फैला कर, धर्म विशेष पर तंज कस कर।
न समझोगे तो मिट जाओगे हिन्दोस्ताँ वालों,
तुम्हारी दास्ताँ तक न होगी दास्तानों में।

धर्म जाती से ऊपर भी बहुत कुछ बचा है, हमे शिक्षा, रोजगार, पानी, बिजली चाहिए धर्म हम देख लेंगे, तम्हे देश संभालने दिया है तुम वो देख लो।शान्ति की एक अपील कर रहा हूँ क्योंकि मुझे नही पसंद के कोई मेरे हिंदुस्तान को जलता हुआ छोड़ दे।


बुधवार, 19 फ़रवरी 2020

नारी सशक्तिकरण

AIIMS में दवाइयों की लाईन में लगा था, लाईन काफी लम्बी थी, बहुत इन्तजार के बाद मेरा नंबर आने वाला था। तभी अचानक एक महिला मेरे आगे आ गई, बिना लाइन में लगे। मैंने रोका और कहा की लाइन से आ जाइये, तो उन्होंने मुझ से कहा की महिला हूँ लगने दीजिये। 

महिला कमजोर की पर्याय क्यों बन जाती है। क्यों नारी सशक्तिकरण के नारों के बाद भी वो खुद को कमजोर मानती हैं। या तो ये महिलाओं का दोहरा चरित्र है या फिर वो कभी सशक्त हो ही नही पाई। 

दिल के बहलाने का सामान न समझा जाये,
मुझको अब इतना भी आसान न समझा जाएं।
मैं भी दुनियां की तरह जीने का हक़ मांगती हूँ,
इसको गद्दारी का ऐलान न समझा जाये।
मेरी पहचान को अगर काफी है मेरी शनाख्त,
मुझको फिर क्यों मेरी पहचान न समझा जाएं।

ये चंद शेर रेहाना रूही के हैं, समाज के दकियानूसी ख्यालों से परेशान दिखते हैं ये शेर। इन ख़्यालों में एक टीस नज़र आती है, जो जीने का हक़ मांग रही है। जीना सिर्फ सांस लेना और खाना नही होता, जीने का अगर सही मतलब जानना हो तो पिंजरे में कैद परिंदे से पूछना, उनका जवाब आज़ादी होगा। मेरी बातें शायद आपको बुरी लगे शायद आप मेरी बातों को नकार दें, और यही तो सत्य की नियति है, नकार दिया जाना। 

माँ सीता अवतरित हुईं थीं,दैवीय शक्तियां थीं उनमें, चाहती तो रावण को अपने तेज़ से ही भष्म कर देती, मगर ऐसा कुछ हुआ ही नहीं। माता सीता तो सशक्त भी थीं और नारी भी, फिर भी उन्होंने वो नही किया जो वो कर सकती थी, अब भले ही जो भी कारण रहा हो। माता अनुसूया की कहानी से तो वाकिफ होंगे आप, की कैसे त्रिदेवियाँ परेशान हो गई थीं माता अनुसूया की पतिव्रता होने पर, और किस तरह से ब्रह्मा, विष्णु और महेश गए थे एक ऋषि का वेश धारण कर के, आगे की कहानी लिखूंगा तो कईयों की भावनायें को ठेस पहुंचेगी, और मैं मुद्दे से भटक जाऊंगा, मुद्दा ये के नारियों का सशक्त न हो पाने की ज़िम्मेदारी किसकी? 
ये दो नारियां तो किस्से कहानियों में सुनी गई हैं, जिसमें कहीं न कही नारी खुद जिम्मेदार हैं, कभी अपने आपको रोक लेने के लिए और कभी अपने से बेहतर किसी अन्य स्त्री के खिलाफ साजिश कर के। लेकिन याद रहे एक नारी और थी जिन्हें शक्ति-स्वरूपा माना जाता है।माँ दुर्गा, सशक्त नारी, इतना तेज, इतना सौंदर्य की आंखें चौंधिया जाएं, और जब असुरों से लड़ी तो किसी योद्धा से कम नहीं लगीं। 

इक़बाल बानो इन दिनों चर्चे में थी, क्योंकि सालों पहले जिया-उल-हक की तानाशाही के खिलाफ लगभग 50 हज़ार की भीड़ के सामने "हम देखेंगे" जैसी तानाशाह विरोधी नज़्म गाया था, वो भी काली साड़ी पहन कर, बता दूं की जिया-उल-हक की तानाशाही में साड़ी और काले रंग दोनो पर प्रतिबंध था। उनका ये हिम्मत दिखाना काबिल-ए-तारीफ है। ऐसी कई महिलाएं हैं,जिन्होंने पुरुष प्रधान समाज को चुनौती दी, जिसने पर्दा प्रथा को चुनौती दी, जिसने ये बता दिया कि बेटे ही नही बेटियां भी वो सब कर सकतीं है जिसकी उम्मीद बेटों से की जाती है। 

आज जब मैं ये लिख रहा हूँ तो इसके पीछे सुप्रीम कोर्ट का एक जजमेंट है जो असल मायनों में नारी सशक्तीकरण को बढ़ावा देता है। पिछले 15 साल से कुछ याचिकाएं डाली गईं थी कोर्ट में, जिन पर फैसला होना था और हुआ। याचिका क्या थी? वो ये थी कि सेना में महिलाओं को कमांडिंग अफसर क्यों नही बनने दिया जाता है, क्यों महिलाओं को सिर्फ 14 साल की नौकरी ही करने दी जाती है,क्यों महिलाओं को सेना से पेंशन उस हिसाब से नही मिलता जिस हिसाब से पुरुषों को मिलता है। सवाल कई थे, मगर इन सवालों में घिरी थी एक चीज "महिला" और जिन सोच से वो लड़ रही थी वो सोच पुरुष प्रभुसत्ता को बढ़ावा देता है। "महिलाएं शारीरिक क्षमताओं में पुरुषों से कमतर होती हैं, उनको बच्चे संभालने होते हैं, घर संभालने होते है, वो निर्णय नही ले पाती। सेना में काम कर रहे जवान क्योंकि गांव-कस्बों से आते हैं तो उनकी मानसिकता अभी इस चीज के लिए तैयार नही हुई है की वो एक महिला के निर्देशों के हिसाब से चले।" ये तमाम दलिलें मेरी नही हैं और न ही मैं इन दलीलों का समर्थन करता हूँ, ये दलिलें सरकार ने पेश की और इस बिनाह पर महिलाओं को कमांडिंग अफसर का पद न देने पर अपनी राय रखी। वहीं दूसरी तरफ एक महिला खङी थी, जो महिलाओं के अधिकार के लिए लड़ रही थी, नाम मीनाक्षी लेखी, पेशे से वकील और भारतीय जनता पार्टी से मेम्बर ऑफ पार्लियामेंट है, लेकिन इस बार उन्होंने खुद के सरकार के खिलाफ आवाज़ उठा के नारियों के हक़ के लिए लड़ना पसंद किया। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने ऐतिहासिक फैसले में कहा की "महिलाओं को कमांडिंग अफसर का पद न देना दकियानूसी है, वक़्त के साथ समाज को बदलना पड़ेगा।" ......
मैं इतने पर रुक जाना चाहता था मगर तभी याद आया, की ये जो सर्वोच्च न्यायालय है इसके एक मुख्य न्यायाधीश होते हैं अंग्रेजी में उसे Chief Justice of India (CJI) कहा जाता है, आज तक इस पद पर एक भी महिला नही आ सकी हैं, सुप्रीम कोर्ट जब सरकार को दकियानूसी बता रही थी शायद उसे अपना दामन दिखाई नही दिया,जरूरी है कि ऐसे माहौल बनाये जाए ताकि महिलाएं भी वहां तक पहुंच सकें। 

GK में सवाल आता है की देश की पहली महिला IPS अफसर कौन बनी, जवाब में हमने रट्टा मार रखा था "किरण बेदी" वो कोई ऐसी वैसे सख्सियत नही हैं, जो सिर्फ किताबों तक सीमित रह जातीं, उन्होंने कई महिलाओं को प्रेरित किया, मगर एक लड़ाई वो भी लड़ रही थी, उनसे लड़ रही थी जिसको आमतौर पर सिस्टम कहा जाता है, लड़ रही थीं अपने हक़ के लिए, लड़ाई इस बात की थी की योग्य होने के बाबजूद भी उनको पुलिस कमिश्नर नही बनाने दिया गया, कारण उस वक़्त भी वहीं थे। अब आप अगर इस system से थोड़ा बाहर झाकेंगे तो पाएंगे की ये तथाकथित system की डोर राजनीति के हाथों में है। राजनीति और महिला सशक्तिकरण से जुड़ा एक बहुत मजबूत नाम है " इंदिरा गांधी"। आज कल देश मे हो रहे बहुत सी चीजों की ज़िम्मेदारी उनपर भी थोपी जाती है, क्या सच क्या झूठ उसपर चर्चा कभी और। कहा जाता है की इंदिरा गांधी अब कोई भी निर्णय लेती थी तो उनमें एक अलग का आत्मविश्वास नज़र आता था, हम यहां उनकी राजनीति पर चर्चा नही करेंगे। 1952 में अपनी दोस्त Dorothy Norman, को लिखे एक पत्र में इंदिरा ने लिखा 

"I am in no sense a feminist, but I believe in women being able to do everything...Given the opportunity to develop, capable Indian women have come to the top at once."

ये साफ तौर पर दिखता है की कहीं न कहीं उनको भी इस बात का शक था की महिलाओं को मौके नहीं मिलते। मगर वहीं दूसरी तरफ देखा जाए तो बिहार की पहली महिला मुख्यमंत्री श्रीमती राबडी देवी जो दिनांक 25 जुलाई 1997 से पहले एक विशुद्ध पारिवारिक महिला थीं, लेकिन सीएम बनते ही सीएम की सारी सम्प्रभुता को पति के चरणों में डालकर दंडवत् हो गईं।ऐसा नहीं है कि हमारे इतिहास में तेज और शक्तिशाली महिलाएं नहीं हुईं हैं, लेकिन कहीं न कहीं ये किसी न किसी दबाव में आकर अपनी स्वतंत्रता, सम्प्रभुता को समर्पित कर दिया है।

वक़्त के साथ समाज बदल रहा है क्या? पूछिये खुद से और आंखें खोल के देखिये समाज में। लड़कियां घरों में कैद हो कर रह लेती है क्योंकि शाम के बाद सड़क पर कुछ मनचले घूमते हैं, हमें मेट्रो में एक डब्बा अलग से लगाना पड़ता है ताकि महिलाएं सुरक्षित सफर कर सके, 33% आरक्षण देना पड़ता है ताकि वो आगे बढ़े लेकिन मेट्रो में अलग डब्बा लगा देने से सोच में परिवर्तन नही आती। हम एक समाज के तौर पर जिम्मेदार हैं। अपनी बेटियों को लड़ना सिखाइये रोना नही, उनको बताइये की उसकी क्षमताओं की जद कहाँ तक है। परों को नोचने से तो बेहतर है की उनको खुले आकाश का रास्ता दिखाया जाए।


मंगलवार, 21 जनवरी 2020

बस एक याद

…….तुम्हें न भागने की बड़ी जल्दी रहती है, जब भी देखो चलो बाय…… बस अब बहुत देर हो गई है, समय तो देखो…….क्या तुम्हे इन घूरती निगाहों से दिक्कत है?, देखो तो मैं एक लड़की होकर भी कितनी सुलझी हुई हूं, और तुम लड़के होकर भी डरते हो……तुम्हे क्या पता इन बाहों में कितना सुकून है। जी करता है बस हर एक लम्हों को कैद कर लूं और बेहतर तो ये होता कि ये ऐसे ही ठहरी रह जाती।….
ये जो तेरे आंखों में जो प्यार है बाहर आने क्यों नहीं देते तुम। चारो और देखो तो जरा, सभी प्यार को मुकम्मल करने में लगे हैं। इन गंगा और यमुना के मिलन को देखो, कितना रोमांच है इनके समागम में। दूर से आए इन पंछी को देखो, जरा भी अपनों से दूर नहीं होते,  देखो कैसे ये चोंच में चोंच डालकर अपने प्यार का इजहार कर रहे हैं। कितना मनोरम दृश्य है और तुम चुप्पी साधे हुए हो। देखो ना अब तो सूर्य भी झितिज पर आ गया है, वो हमारे प्रेम के दृश्य को और भी खूबसूरत बना रहा। ढलते साम के साथ ठंड भी बढ़ रही है, कहीं खुद को मुझसे दूर मत कर लेना तुम, तुम्हारी बदन कि गर्मी ही बस मुझे यहां रुकने को कह रही है। तुम शांत हो, पता नहीं डरते क्यों हो। इन प्यार के लम्हों को जीने तो दो मुझे , क्योंकि ये पल ही मेरी ज़िन्दगी की धरोहर है।………
…..चुप नहीं बैठा हूं मैं, बस तुम्हारे बातों में हर लम्हों को जी रहा हूं।

मंगलवार, 14 जनवरी 2020

भाषा और हम!

भाषा या बोली कहीं न कहीं हमारी अस्तित्व की लड़ाई लड़ती है। हमारे बोलने का लहज़ा, उच्चारण का तरीका या फिर बोल चाल में बोले जाने वाली शब्द अक्सर हमारे प्रांत, हमारे क्षेत्र के बारे में बहुत कुछ बयान कर देती है। देखा जाए तो भाषा इंसान को बहरूपिया भी बनाता है, जैसे की मैं बिहार का हूँ और पंजाब में पढ़ाई करता हूँ, तो मैंने "मैं" बोलना शुरू कर दिया है। ये गलत नही है, लेकिन सिर्फ "मैं" बोलने से कोई ये नही जान पाता की मैं किस प्रान्त से हूँ, और मेरे प्रान्त से जुड़ी दकियानूसी बातें जो लोगों के मन मे घर कर चुकी है, मेरे तक नही आती। भाषा माध्यम है जिस से हम और आप एक दूसरे को समझते हैं, तो फिर इन माध्यमों में अंतर्विरोध कैसा? क्यों एक भाषा बोलने वाले दूसरे को कमतर समझते हैं। ये बात महज़ हिंदी और अंग्रेजी के शीत युद्ध की नही है। कई ऐसी बोलियाँ है भाषाएँ हैं जो या तो ख़त्म हो गई है या लोग उन भाषाओं को कम बोलने लगे हैं, क्योंकि उनको ये लगता है की लोग क्या सोचेंगे। हिंदी और अंग्रेजी के विवादों को तो आपने सुना ही होगा।

भाषाएँ अपने आपको खुद खत्म नही करती आप और मैं हर रोज अपनी भाषाओं को धीमा जहर दे के मार रहे हैं। मुझे किसी ने खास कर के मैथिली नही सिखाया, न कोई व्याकरण दिया, और न तो अपने आप मुझे मैथिली आ गई, इसके पीछे कहीं न कहीं माँ बाप की परवरिश भी है, उन्होंने हमेशा मुझ से मैथिली में बात की। जो के आज कल नही देखा जाता माँ बाप बच्चों को अपनी बोली अपनी भाषा नही सिखाते वो हिंदी या अंग्रेजी की तरफ बढ़ जाते हैं, इस से हमारी अपने घर मे बोली जाने वाली बोली या भाषा संक्रमित हो जाती है। बच्चों को धान, गेहूँ, चीनी नही सिखाते वो rice, wheat, sugar सिखाते हैं। तकलीफ इस बात की नही है की अंग्रेज़ियत क्यों आ रही है, दुख इस बात का है, के जो भाषा हमारी अस्तित्व की लड़ाई लड़ती है, हम उसी भाषा के पीठ पे छुरा भोंकते हैं। ऐसा नही है, की माँ बाप बच्चों का बुरा सोचते हैं वो ऐसा इसलिए करते हैं ताकि उनके बच्चे कल को जब घर के कुएं से निकल कर संसार के समंदर में जाएं तो उनको वहां तैरना सीखना न पड़े, बजाए इसके की वो पहले से ही तैयार रहें। अब इस उहा पोह में एक चीज हार जाती है वो है हमारी अपनी भाषा और बोली।भाषाऐं और बोलियां हम इंसानों की तरह ही तो है, भरण पोषण जितना मिलेगा वो उतना विशाल होगा और अगर ऐसा न हुआ तो वो मौत की ओर बढ़ने लगता है। संस्कृत एक ऐसी ही भाषा थी जो अब शायद आखरी साँसे गिन रही है।

मेरे एक दोस्त का कहना है "हर एक साहित्य विशेष और सुंदर होता है, भले ही वो किसी भाषा मे हो। साहित्य समझने के लिए माध्यम से ज्यादा मन की जरूरत होती है"  
मैं भी इस से इत्तेफ़ाक़ रखता हूँ, लेकिन हमें ये नही भूलना चाहिए की हमारी जड़ें कहाँ हैं। नागरर्जुन हिंदी में लिखते रहे लेकिन जब जब मैथिली में लिखा तो ऐसा नही लगा की वो मैथिली भूल गए हैं।

 "मैथिली" जो की मिथिलांचल की भाषा है। माँ सीता के घर की भाषा है, जिस भाषा के नाम पर माँ सीता का नाम रखा गया "मैथिली" और उनकी माँ "मैथलानी"। जो मेरी भी भाषा है, कहा जाता है की मिथिलांचल में अगर दो लोग लड़ भी रहे होंगे तो उनकी लड़ाई आपको लड़ाई नही लगेगी, लगेगा की वो प्यार से आपस मे कुछ बात कर रहे हैं। मैथिली वो भाषा है जिसमें विद्यापति लिखते थे। कहा जाता है, की स्वयं भगवान शंकर एक नौकर का वेश धारण कर के विद्यापति के घर काम किया करते थे, जिसका नाम "उगना" था। एक बार विद्यापति जी की पत्नी ने उगना को किसी काम के न करने पे पिट दिया था तो उगना रूठ गए थे, विद्यापति जी ने एक कविता लिखी जो आज भी लोकगीत में काफी प्रचलित है। मिथिलांचल में अगर कोई शादी होती है तो वो शादी बिना विद्यापति के लोगीत के सम्पन्न नही हो सकती। ऐसी मैथिली भाषा जिसकी चाकरी करने भगवान आ गए थे, आज विकृत हो गई है, एक क्षेत्र मात्र में सिमट कर रह गई है। दोषी किसको ठहराया जाए? मिथिलांचल के लोग मिथिला से बाहर अगर मिलते हैं तो हिंदी में बात करते हैं, तो ऐसे में भाषा सिमट कर ही रह जायेगी। अपने भाषा अपनी बोली को मत छोड़िये, भले लाख अंग्रेजी, उर्दू,हिंदी सिख लें लेकिन मज़ा उसी भाषा मे आता है जिस भाषा में आप अपनी माँ से बात करते हैं। 

इतना लिखते लिखते मैं तो एक चीज भूल ही गया, और जो भूल गया वही असल मुद्दा है। जी हां! मैं मज़े की बात कर रहा हूँ। जी हां मज़ा! वो सुखद अनुभव जब पूरी दुनिया कहती है की " I'm lost" उस वक़्त "हम हरा गैलों ई नबका गाम में"(मैथिली) बोलने का अपना मज़ा है। किसी को आवारा बोलना सब बोल देते हैं लेकिन "डंगर"(पंजाबी) बोलने का अपना मज़ा है। Idiot, बुद्धू तो सब बोलते हैं "घेलो"( मारवाड़ी) बोलने का अपना मज़ा है। ऐसे ही कई शब्द है जिसको किसी अनजान शहर में सुनने के बाद लगता है की कोई अपना है यहां। सिर को "कपाड़", मुह को "थूथ" रास्ता को "बाट" बोलने में जो अपनापन है वो शायद दूसरी भाषा या बोली को सिख कर नही आ सकता। आज भी मैं पहले मैथिली में सोचता हूँ फिर हिंदी में अनुवाद करता हूँ।

शुक्रवार, 10 जनवरी 2020

।। हिन्दी की वैश्विक धमक।।

हम सब जानते हैं कि आज १० जनवरी को प्रति वर्ष विश्व हिंदी दिवस मनाया जाता है। आज ही के दिन २००६ में तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने विश्व हिंदी दिवस मनाने की घोषणा की थी। इसके बाद से ही विदेश मंत्रालय हर साल हिंदी के उत्थान और उन्नयन के लिए विभिन्न देशों में अवस्थित हमारे दूतावासों में इससे संबंधित कार्यक्रमों का आयोजन करती है।इसका उद्देश्य हिंदी के प्रति वैश्विक स्तर पर जागरूकता लाना और हिंदी को एक वैश्विक भाषा के तौर पर विकसित करना है।
आज हिंदी पूरे विश्व में गौरव - पताका लहरा रही है।२००१ से २०११ के जनगणना के बीच हमारी कुल हिंदी - भाषी आबादी ४१ प्रतिशत से बढ़कर ४३ फीसदी हो गई है।यहीं नहीं आज का सबसे बड़ा आर्थिक महाशक्ति देश अमेरिका में हिंदी - भाषियों की संख्या ९ लाख तक पहुंच गई है।इस तरह हिंदी वहां की सर्वाधिक लोकप्रिय देशी भाषा है।इस सूची में गुजराती और तमिल क्रमशः दूसरे और तीसरे स्थान पर हैं।
पिछले साल आज ही के दिन संयुक्त राष्ट्र ने यू.एन. न्यूज के हिंदी वेबसाइट को लाउंच किया था उल्लेखनीय है कि जुलाई २०१८ से ही संयुक्त राष्ट्र संघ ने ट्विटर, फेसबुक और इंस्टाग्राम पर सोशल मीडिया सामग्री का हिंदी संस्करण भी प्रारंभ कर चुकी है। संयुक्त राष्ट्र महासभा में भी हिंदी के पक्ष में सदस्य देशों की संख्या बढ़ी है। पिछले दिनों राज्यसभा में पूछे गये प्रश्न के लिखित उत्तर में सरकार ने बताया कि संयुक्त राष्ट्र हिंदी - भाषी देश के सहुलियत के लिए हिन्दी संस्करणों और सामग्रियों को बढ़ावा दे रही है।
दुनिया का एक बङा बाजार और बङी संख्या में उपभोक्ता होने के चलते सबसे बड़ी साफ्टवेयर कंपनी गूगल ने अपना हिंदी 'इंडिक की - बोर्ड' बना रखा है।साथ ही कई सारी बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपने कर्मचारियों - अधिकारियों के लिए हिंदी समझना और जानना अनिवार्य कर रखा है।
अगर हम देखें तो लगता है कि यदि हम अपने राजभाषा,सम्पर्क - भाषा के प्रति जागरूक होकर उसे संजोंयेंगे उसे संरक्षित करेंगें तो हमारी मातृभाषा एक अलग पहचान, अस्तित्व के साथ व्यापक स्तर पर उभरेगी।।

बुधवार, 8 जनवरी 2020

अतीत के पन्ने

अतीत को पलट कर देखना एक आवश्यकता है हमारी। मानो या ना मानो, हम सभी अतीत को पलटकर देखते हैं। उन लम्हों को जो खूबसूरत हैं और उन लम्हों को भी जो जीना सिखाती है। कुछ लोग स्वयं का मूल्यांकन करते हुए पीछे मुड़कर देखते हैं, तो कुछ बस पछताने के लिए। और ऐसा वाजिब भी है, यह अतीत ही तो है जो हमारे भविष्य के पथ का निर्धारण करता है।
आखिर ऐसा क्यों है कि हम इस अतीत चक्र से बाहर नहीं निकल पाते हैं? साधारण सा जवाब है, हम उन लम्हों के दामन में खुद को ढूंढ़ते हैं, हम इस उत्तर की खोज में लगे रहते हैं कि क्या हमारा वहां होना न्यायसंगत था? हम बात करते हैं स्वयं से क्योंकि वही हमारे भविष्य का निर्माण करती है। हमारा गत व्यक्तित्व ही हमारे भविष्य के बीज को समेटे हुए होता है। और जो ऐसा करने में असमर्थ है, या तो वो कमजोर है या फिर खुद से भाग रहा है।
इन मूल्यांकन में इसके साथ साथ मन की आवाज़ भी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करती है। इसका काम उतना ही मह्वपूर्ण होता है जितना एक रंग मंच में नेपथ्य के आवाज़ का। शायद ये ज़िन्दगी इतनी उत्साही न होती अगर इसमें डर का रोमांच ना होता। डर भले ही छोटी से छोटी बात का हो, जैसे – इम्तिहान ना उत्तीर्ण होने का या फिर प्रेमिका का छोड़ जाना अन्यथा फिर कुछ बड़ी बातें जैसे – अपनों से विलय आदि। ये डर ही है जो हमें जीने की चाहत पैदा करता है और डर ही है जो हमें पीछे मुड़कर देखने को भी मजबूर करता है। ज़िन्दगी की पहेली इतनी उलझी हुई है कि अगर तुमने अतीत से सबक नहीं लिया तो वो फिर से सबक देने वापस आ जाएगा।
हमें जिंदा होने का एहसास कराती है डर और ऐसे ही समय में स्वयं के मूल्यांकन की आवश्कता जान पड़ती है। डर समा जाए तो एक बार पलटकर देखो अपने अतीत को, फिर ध्यान से सुनो अपने मन के आवाज़ को , सारे प्रश्न के हल मिल जायेगे और शायद ज़िन्दगी झेलने या फिर जीने के तरीके भी।

रविवार, 5 जनवरी 2020

बस कहने की माँ

आपलोग को याद रहा होगा मुद्दा "बीफ" का, काफी चर्चा का विषय था किसी वक़्त । जब किसी चीज के बारे में बोला जाता है तो उसके पीछे ज़िम्मेदारियाँ भी तो आती है, सिर्फ विरोध करना ही सबकुछ नही होता। जब माँ बोलते हो तो क्या माँ को आवारा घूमने छोड़ दोगे? क्या जिस माँ ने आपको जन्म दिया है, उनको सड़क पर गंदगी खाने दोगे? माँ बोलते हो तो क्या माँ समझ कर उसके लिए कभी सोचा है? सर्दियों में ठिठुरती हुई लाचार माँ, गर्मी में प्यासी, नाले का पानी पीने के लिए मज़बूर......
हमारी माँ(biological mother) जो की हमें पालती है, इस उम्मीद में की हम बड़े हो कर उनका ध्यान रखेंगे, लेकिन इस माँ (गौ माता) को तो सिर्फ छत और खाने को कुछ घास पत्ते ही चाहिए, अगर हम वो नही करें तो इस माँ के लिए तो उतने आश्रम भी नही है। बेचारी सड़क किनारे प्लास्टिक खाते खाते किसी दिन दुनियां को छोड़ देती है। क्या एक बार भी किसी ने सोचा है? जब वही प्लास्टिक उसके शरीर को नुकसान पहुंचाता है,"बीमार लाचार माँ", लेकिन अगर बीफ (गौ मांस) दिख जाए तो आसमान सर पे उठा लेते हैं, कोई आदमी गोश्त ले जाये और उस गोश्त को बीफ समझने मात्र से ही हंगामा कर देते हैं, इसलिये नही की माँ का ख़्याल आया बल्कि इसलिये की किसी के वर्चस्व को ललकारा है किसी ने! किसी के खाने पीने की आज़ादी को छीनना सिर्फ अपने घमंड के पूर्त्ति के लिए! क्या यही माँ के लिए कर्तव्य है? आजकल NH पे गायों का, और गायों के कारण दुर्घटना आम हो गई है, कोई देखने वाला नही है, उनकी ये हालत को, और न सिर्फ गायें और भी बाकी जानवरों का। पहले तो इन जानवरों से उनका घर, जंगल छीन लेते हैं और जब वो सड़क पे दिख जाए तो High Speed गाड़ियां उनको कुचल देती है, और हाँ कोई मेडिकल टीम भी नही है उनके लिए, फर्स्ट ऐड या उनका बचाने के लिए। जानवरों के लिए हमारे कुछ जिम्मेदारियां हैं। कही पंछी मर रहे हैं मोबाइल रेडिएशन से, कहीं कोई और....  क्या यही है सतत विकास (sustainable development)?? 

सनातन धर्म मे तो वसुधैव कुटुम्बकम का सिद्धांत है, गरुड़ पुराण के अनुसार मारने के बाद वैतरणी नदी को गाय के पूंछ पकड़ कर ही पार किया जाता है, न सिर्फ जीते जी बल्कि मारने के बाद बजी गाय हमारे काम आती है। हम गाय को पूजते हैं क्योंकि इसमे सभी देवी देवता निवास करते है, पक्षियों को पूजते हैं तो रक्षा करना हमारा धर्म भी है। कबतक हम सरकारों को इनसब का दोष देते रहेंगे? देखा गया है गाय, भैंस या कोई भी जानवर का वध कभी क़ानून ने नही रुकी है। जब इस देश का हर एक नागरिक सोच ले कि ये जीव जंतु हमारी ज़िम्मेदारी है, तो शायद इनकी हालत सुधार जाए।


गुरुवार, 2 जनवरी 2020

#Me Too & Glass Ceiling (The Indian Perspective)

Nowadays the dynamics of the corporate world has changed drastically. Lots of contradicting as well as non contradicting dimensions could be observed. This phenomenon is not only prevalent in India but globally as well. When narrowing down the dynamics of new generation corporate to the area of glass ceiling, lots of inter-related topics could be unveiled. One of the most relevant dimensions that came into picture in recent times is the case of me too.
There are so many historical links that could be drawn from the concept of shattering the glass ceiling especially in Indian context. The revolution started in early 1915 when Mahatma Gandhi incorporated women in Quit India Movement, on contemporary women organizations started to emerge on a rapid basis. The most important period in the shattering for the glass ceiling took place was the years 1975-85, when it was declared as United Nations decade for women. Shattering in Indian context will be difficult to understand if we ignore the aspect of evolution of feminism in India. It would be very astonishing to know that first feminist movement was initiated by men in India and later it was succeeded by women. Post independence feminist idea was at peak and the objective was to increase the extent to which women are allowed in the workforce. That was the time when society just started to entertain women in her professional life, due to that seeing women at the top position was merely a dream.  The scenario changed in the year of 1966 when Indira Gandhi became the prime minister of India. This incident had a considerable impact on future for this jubilee.  
The Sexual Harassment of Women at Workplace (Prevention, Prohibition and Redressal) Act, 2013 in India that seeks to protect women from sexual harassment at their place of work. The Act came into force from 9 December 2013. The Criminal Law (Amendment) Act, 2013 introduced changes to the Indian Penal Code, making sexual harassment an expressed offence under Section 354 A, which is punishable up to three years of imprisonment and or with fine. The Amendment also introduced new sections making acts like disrobing a woman without consent, stalking and sexual acts by person in authority an offense. It also made acid attacks a specific offence with a punishment of imprisonment not less than 10 years and which could extend to life imprisonment and with fine. (2018)
If understanding the level of glass ceiling in India we should be ready to digest the fact that even after the 70 years of independence, most of the population of the country resides in the rural area and still women are considered as economical burden. But the contradicting fact is that most of the women, around 36% are into workforce and some of them are excelling with the double progress rate than men in corporate. To support the previous stated statement some classic examples that could be considered are of Arundhati Bhattacharya, Chanda Kocchar, and Naina Kidwai in banking sector; Sheila Sri Prakash in infrastructure industry; Ekta Kapoor, Shobhana Bhartia, Chiki Sarkar in media and arts industry; Vinita Bali and Indira Nooyi in food in beverages industry and many more. 
We see more women in the C-suites of certain industries such as publishing, education, entertainment, healthcare, etc. and negligible representation in defense and aerospace, banking, and engineering especially in the Western economies. Self-selection could be an important reason for this gap. In business administration, although women are a majority, there are very few women in disciplines such as accounting or finance. Having an advanced degree in these two business disciplines is a stepping stone to the upper echelons of the organization. In India, women are entering professions that were once dominated by men. In sectors such as advertising, banking, engineering, civil services, manufacturing, and the civil services, there is an exponential growth in the number of women. One major reason for this development could be the change that has occurred at the grassroots level. In absolute numbers, India has one of the largest pools of female students in engineering and IT in the world.
In a study it was found that women are likely to excel in an organization through relationship mentoring with the high officials who have high disposable income. Mentoring is a session which is done to improve chisels of relationship and for the way to the top. After the raising of issue of #me too, all the senior level management are likely to contact their female juniors lesser  than the earlier. After the introduction of #me too, 64% of the old population of office started reducing contacting female juniors in order to save themselves from engaging into rumors and hoax.
With the wave of #Me Too there are several positive as well as negative side in the corporate that has been observed, Both the side are weighed equally. When talking about general perspective of the topic we can say that it started at Hollywood and the wave was here at Bollywood far fastert than any airplane. The approach regarding the same has prevented sexual harassment in most of the cases post-revolution. At the same time for some of the corporate #me too is a straightaway a confusion and which has finally resulted in sheer loss due to depreciations, decrease in goodwill, another material aspects and majorly decrease in employees morale have been observed.
When connecting the two distinct dots of me too and glass ceiling, we may conclude that this particular revolution has become one of the sensitive aspects of the glass ceiling when talking in the context of women. This relationship is not just based on 2 months old revolution, but links could be traced from the Humayuan period that glass ceiling is persistent since then and women revolution has always worked anti to the previous' Central idea.