भाषा या बोली कहीं न कहीं हमारी अस्तित्व की लड़ाई लड़ती है। हमारे बोलने का लहज़ा, उच्चारण का तरीका या फिर बोल चाल में बोले जाने वाली शब्द अक्सर हमारे प्रांत, हमारे क्षेत्र के बारे में बहुत कुछ बयान कर देती है। देखा जाए तो भाषा इंसान को बहरूपिया भी बनाता है, जैसे की मैं बिहार का हूँ और पंजाब में पढ़ाई करता हूँ, तो मैंने "मैं" बोलना शुरू कर दिया है। ये गलत नही है, लेकिन सिर्फ "मैं" बोलने से कोई ये नही जान पाता की मैं किस प्रान्त से हूँ, और मेरे प्रान्त से जुड़ी दकियानूसी बातें जो लोगों के मन मे घर कर चुकी है, मेरे तक नही आती। भाषा माध्यम है जिस से हम और आप एक दूसरे को समझते हैं, तो फिर इन माध्यमों में अंतर्विरोध कैसा? क्यों एक भाषा बोलने वाले दूसरे को कमतर समझते हैं। ये बात महज़ हिंदी और अंग्रेजी के शीत युद्ध की नही है। कई ऐसी बोलियाँ है भाषाएँ हैं जो या तो ख़त्म हो गई है या लोग उन भाषाओं को कम बोलने लगे हैं, क्योंकि उनको ये लगता है की लोग क्या सोचेंगे। हिंदी और अंग्रेजी के विवादों को तो आपने सुना ही होगा।
भाषाएँ अपने आपको खुद खत्म नही करती आप और मैं हर रोज अपनी भाषाओं को धीमा जहर दे के मार रहे हैं। मुझे किसी ने खास कर के मैथिली नही सिखाया, न कोई व्याकरण दिया, और न तो अपने आप मुझे मैथिली आ गई, इसके पीछे कहीं न कहीं माँ बाप की परवरिश भी है, उन्होंने हमेशा मुझ से मैथिली में बात की। जो के आज कल नही देखा जाता माँ बाप बच्चों को अपनी बोली अपनी भाषा नही सिखाते वो हिंदी या अंग्रेजी की तरफ बढ़ जाते हैं, इस से हमारी अपने घर मे बोली जाने वाली बोली या भाषा संक्रमित हो जाती है। बच्चों को धान, गेहूँ, चीनी नही सिखाते वो rice, wheat, sugar सिखाते हैं। तकलीफ इस बात की नही है की अंग्रेज़ियत क्यों आ रही है, दुख इस बात का है, के जो भाषा हमारी अस्तित्व की लड़ाई लड़ती है, हम उसी भाषा के पीठ पे छुरा भोंकते हैं। ऐसा नही है, की माँ बाप बच्चों का बुरा सोचते हैं वो ऐसा इसलिए करते हैं ताकि उनके बच्चे कल को जब घर के कुएं से निकल कर संसार के समंदर में जाएं तो उनको वहां तैरना सीखना न पड़े, बजाए इसके की वो पहले से ही तैयार रहें। अब इस उहा पोह में एक चीज हार जाती है वो है हमारी अपनी भाषा और बोली।भाषाऐं और बोलियां हम इंसानों की तरह ही तो है, भरण पोषण जितना मिलेगा वो उतना विशाल होगा और अगर ऐसा न हुआ तो वो मौत की ओर बढ़ने लगता है। संस्कृत एक ऐसी ही भाषा थी जो अब शायद आखरी साँसे गिन रही है।
मेरे एक दोस्त का कहना है "हर एक साहित्य विशेष और सुंदर होता है, भले ही वो किसी भाषा मे हो। साहित्य समझने के लिए माध्यम से ज्यादा मन की जरूरत होती है"
मैं भी इस से इत्तेफ़ाक़ रखता हूँ, लेकिन हमें ये नही भूलना चाहिए की हमारी जड़ें कहाँ हैं। नागरर्जुन हिंदी में लिखते रहे लेकिन जब जब मैथिली में लिखा तो ऐसा नही लगा की वो मैथिली भूल गए हैं।
"मैथिली" जो की मिथिलांचल की भाषा है। माँ सीता के घर की भाषा है, जिस भाषा के नाम पर माँ सीता का नाम रखा गया "मैथिली" और उनकी माँ "मैथलानी"। जो मेरी भी भाषा है, कहा जाता है की मिथिलांचल में अगर दो लोग लड़ भी रहे होंगे तो उनकी लड़ाई आपको लड़ाई नही लगेगी, लगेगा की वो प्यार से आपस मे कुछ बात कर रहे हैं। मैथिली वो भाषा है जिसमें विद्यापति लिखते थे। कहा जाता है, की स्वयं भगवान शंकर एक नौकर का वेश धारण कर के विद्यापति के घर काम किया करते थे, जिसका नाम "उगना" था। एक बार विद्यापति जी की पत्नी ने उगना को किसी काम के न करने पे पिट दिया था तो उगना रूठ गए थे, विद्यापति जी ने एक कविता लिखी जो आज भी लोकगीत में काफी प्रचलित है। मिथिलांचल में अगर कोई शादी होती है तो वो शादी बिना विद्यापति के लोगीत के सम्पन्न नही हो सकती। ऐसी मैथिली भाषा जिसकी चाकरी करने भगवान आ गए थे, आज विकृत हो गई है, एक क्षेत्र मात्र में सिमट कर रह गई है। दोषी किसको ठहराया जाए? मिथिलांचल के लोग मिथिला से बाहर अगर मिलते हैं तो हिंदी में बात करते हैं, तो ऐसे में भाषा सिमट कर ही रह जायेगी। अपने भाषा अपनी बोली को मत छोड़िये, भले लाख अंग्रेजी, उर्दू,हिंदी सिख लें लेकिन मज़ा उसी भाषा मे आता है जिस भाषा में आप अपनी माँ से बात करते हैं।
इतना लिखते लिखते मैं तो एक चीज भूल ही गया, और जो भूल गया वही असल मुद्दा है। जी हां! मैं मज़े की बात कर रहा हूँ। जी हां मज़ा! वो सुखद अनुभव जब पूरी दुनिया कहती है की " I'm lost" उस वक़्त "हम हरा गैलों ई नबका गाम में"(मैथिली) बोलने का अपना मज़ा है। किसी को आवारा बोलना सब बोल देते हैं लेकिन "डंगर"(पंजाबी) बोलने का अपना मज़ा है। Idiot, बुद्धू तो सब बोलते हैं "घेलो"( मारवाड़ी) बोलने का अपना मज़ा है। ऐसे ही कई शब्द है जिसको किसी अनजान शहर में सुनने के बाद लगता है की कोई अपना है यहां। सिर को "कपाड़", मुह को "थूथ" रास्ता को "बाट" बोलने में जो अपनापन है वो शायद दूसरी भाषा या बोली को सिख कर नही आ सकता। आज भी मैं पहले मैथिली में सोचता हूँ फिर हिंदी में अनुवाद करता हूँ।