सोमवार, 30 जुलाई 2018

मेरा चेहरा

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 कल कुछ खरीदारी के लिया निकला था, सोचा ! के ये जो मेरा चेहरा है, कुछ पुराना सा हो गया है, और काफी मात भी खाने लगा है | तो मैं भी जा पहुंचा एक दुकान पर |  दुकानदार ने देखते ही कहा "अरे भाई  साहब आइये आइये आप को देख कर लग रहा है के आपको नया चेहरा चाहिए " | मैं भी सुन के हैरान रह गया के आखिर इसे पता कैसे चला ? फिर उस ने बताया के उसके पास 2 तरह के चेहरे हैं |
एक जो पारदर्शी है, जो बहुत जगहों पर मिलते भी नहीं, और तो और काफी महंगे हैं | फिर बिलकुल एक Salesman जैसे उसने कहा "और fashion  में भी नहीं है मालिक " | मैं कुछ और पूछता उस से पहले उसने दूसरा चेहरा भी दिखा दिया | उस ने बताया के इस चेहरे को वो "दोगला " चेहरा कहते हैं | "मालिक मेरी बात समझिये ये काफी fashion  में है " ऐसा कह के वो उस चेहरे की तरफदारी कर रहा था,उसने ये भी बताया  के "दोनों तरफ से इस्तेमाल कर सकते हैं" और मुझे अपनी जेब जयादा ढीली भी नहीं करनी पड़ेगी |  मैंने जेब में हाथ डाला तो पैसे उतने ही थे के मैं एक " दोगला "  चेहरा ही खरीद पाया | अब चेहरा तो खरीद लिया था, लेकिन उस पर जो फैशन वाले कपडे हैं, अब तो वो भी लेने पड़ेंगे | मैंने उसी दुकानदार से कहा के इस चेहरे क साथ जो fit अये वो कपडे भी दिखा दो और सुनो .... | मैं अपनी बात पूरी करता उस से पहले मेरे सामने उसने एक सफ़ेद कपडे का थाक रख दिया और बोलै "भाई साहब दोगले चेहरे पर fashion में अभी यही है, सफ़ेद कुर्ता "| उसने तो तुरंत एक offer  भी दे डाला के "भाई साहब अगर आप एक ही जैसे 3 कुर्ता लेते है तो हम आप को free  में थोड़ी सी मक्कारी और हरामखोरी देंगे "|  मैं भी fashion  और offer के जाल में फँस गया और 3 कुर्ते खरीद लिए | अब market  में मेरा रौब चलता है, लोग डर से सलाम करते हैं | लेकिन मेरी इज्जत कहीं खो सी गई है |


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गुरुवार, 26 जुलाई 2018

कारगिल और मैं

‌मेरे जन्म के तकरीबन एक साल बाद, हिंदुस्तान और  पाकिस्तान के बीच तनाव का माहौल बन गया था। खेर ये कोई नही बात नहीं थी। भारत और पाकिस्तान के बीच अक्सर ऐसा ही माहौल रहता है। लेकिन अबकी बार पाकिस्तान ने हद पार कर दी थी, उसने कारगिल पर  अपना अनैतिक कब्जा जमा लिया था। उसमें सिर्फ पाकिस्तानी फौज नहीं थे, बल्कि पाकिस्तान में पले और बढ़े सिरफिरे आतंकी भी थे। अटल बिहारी वाजपेयी जी की सरकार थी, और भारतीय सैनिकों में भारी गुस्सा, और इन दोनों के संयोग से लिया गया एक निर्णय, के भारत कारगिल से इन पाकिस्तानियों को खदेड़ देगा। भारतीय सैनिक के पास हो सकता है के तकनीक पुराने हों, पर उत्साह और देश पर मार मिटने का जज्बा इसे बहुत मजबूत बना देती है। इधर मेरी माँ मेरा ख्याल रख रही थी और उधर हमारे सैनिक निकल पड़े थे भारत माँ की अस्मिता बचाने।
      युद्ध शुरू हो चुका था, हमारी पकड़ मजबूत होती जा रही थी, और दुश्मनों का हौसला कमजोर। हम लड़ रहे थे, और बड़ी मजूबती से डटे थे। लेकिन हर सुबह सामना होता था एक बुरी खबर से, "आज फिर कुछ जवान शहीद हुए"। उधर देश के वीर जवान लड़ रहे थे, और इधर उनके परिवार वाले बस उनके लौटने का इन्तेजार।
"या तो तिरंगा फहरा के आऊंगा या तिरंगे में लिपट के आऊंगा, लेकिन मैं आऊंगा जरूर"
कुछ ऐसी भावनायों के साथ पूरा देश लड़ रहा था दुश्मनो से। लेकिन तभी फिर कुछ दिन बाद 26 जुलाई 1999 को खबर आई के भारत ने कारगिल पे तिरंगा लहरा दिया है। मेरी उम्र तकरीबन 1 साल कुछ महीने रही होगी, और मुझे उस वक़्त इन सब से कोई फर्क नही पड़ रहा था, और न कोई मेरे घर से  कारगिल लड़ा या शहीद हुआ, लेकिन आज भी जब कारगिल की कहानी सुनता हूँ तो सोचने पे मजबूर हो जाता हूँ कि आखिर कहां से लाते हैं हमारे सैनिक इतना सारा जज्बा इतना जुनून। मैं माँ से बात किये बगैर नही रह सकता और वो अपनी माँ अपने बच्चों को छोड़ अपनी जान की बाजी लगाने निकल पड़ते हैं। मुझे याद है मेरे माँ अक्सर मैथिली में एक गाना गाया करती थी,
"कारगिल सीमा मई पर द देलके जान हो...
धन्य धन्य भारत माँ के सुपुत्र जवान हो...."
आज भी जब इन दो पंक्तियों को गाता हूँ या याद करता हूँ तो आंखे नाम हो जाती है। चलिये आज सब मिल के उस जज्बे को सलाम करते हैं जिसने हमे आज तक दुश्मनों से बचा के रखा है।

मंगलवार, 24 जुलाई 2018

क़ाबू

क्या करें क़ाबू में नहीं आता ! कभी ज़ुबान तो कभी दिल, और जो कभी ये सब क़ाबू में आ जाये, तो हरकतें जवाब दे देती हैं। बहुत मुश्किल होता है किसी पर क़ाबू पाना, क्योंकि इसमें दिल, दिमाग और जिस्म का मिला जुला ताल मेल होता है। "मतलब" ऐसा कहने वाले लोग मिले होंगे, जो बात बात में "मतलब" शब्द का प्रयाग करते हैं। क्यों? बिल्कुल ठीक इस पर उनका क़ाबू नही है, वो चाहें न चाहें निकल ही जायेगा। क़ाबू किस पर पाया जाय? आदतों पर? इंसानो पर? जुबान पर? या फिर इन सब पर? सवाल भी मेरे और जवाब भी मेरे!!! अब ये मेरी आदत है। लेकिन इस पर काबू पाने की मेरी कोई ख़्वाहिश नहीं है। लेकिन जब बात आती है के क़ाबू किस पर पाया जाए तो जवाब होगा कि जो गलत है या जो हमें परेशान करते हैं, वो चाहे आदत हो या इंसान, लेकिन इनसब से हट के जुबान पर तो क़ाबू होना ही चाहिये। क्योंकि जीभ का दिया हुआ घाव कभी भरता नही है। 

शुक्रवार, 20 जुलाई 2018

पसंद 😁 और नापसंद 😞

मुझे ये अच्छा लगता है! वो अच्छा नही लगता! तुम बहुत अच्छे इंसान हो! वो बिल्कुल भी अच्छा नही है! मुझे ठंड का मोसम पसंद है! गर्मी अच्छी नही लगती! ........
ये तमाम ऐसी चीजें हैं जो हम अपनी ज़िंदगी में कहते और मानते आए हैं। हमें कुछ चीज पसंद होती है और कुछ चीजें नापसन्द होती है। किसी चीज को पसंद करना या उस से नफरत करना, ये तो हमारी सोच पर निर्भर करता है। हमारी प्राथमिकताओं पर निर्भर करता है, यदि निर्भर नही कर रहा होता तो जो चीज हमें आज पसंद है वो काल को नापसंद में नही बदलती, और सिर्फ प्राथमिकता को दोष क्यों दें ? कहीं न कहीं वक़्त भी दोषी है। वक़्त अगर बहुत ज्यादा गुजार दिया पसंद के साथ तो वही चीज उतनी ही जल्दी नापसंद भी हो जाती है। अरे नहीं!!! रुको जरा!! रह गया कुछ! किसी से बहुत ज्यादा की गई मोहब्बत उसकी एक गलती से बहुत ज्यादा नफरत में तब्दील हो जाती है। इसीलिए कहा जाता है
" अति अशक्ति से विरक्ति पैदा लेती है"
मतलब के जो हम पसंद या नापसंद करते हैं वो हमारी ही आदतों के कारण, चाहे वो प्राथमिकता का दोष हो या अत्यधिक मोहब्बत का, लेकिन किसी भी चीज का अच्छा या बुरा होना । हमारी अच्छाई और अंदर के बुराइयों पर निर्भर करती है, न के उस चीज पर। तो अब कभी कोई आप से नाराज़ हो तो समझ लेना के गलती उसकी है बशर्ते आप बदले न हों

रविवार, 15 जुलाई 2018

किस्से !

मेरे माज़ी के कुछ किस्से हैं, जो कहीं न कहीं मेरे मुस्तकबिल को बयां करते हैं। आप कल क्या होंगे ये बात इस पर भी निर्भर करता है कि आप कल क्या थे। किस्से !!! आप के भी तो होंगे? हर किसी के अपने अपने किस्से होते हैं, और उन किस्से के नायक भी वो खुद ही होते हैं। दुनियाँ से लड़ रहे होते हैं। लोगों को हँसा रहे होते हैं। अपने आपको एक एक्शन हीरो से कम नही समझते हैं हम अपनी किस्सो में। जब भी कहीं कोई दर्द, बेवफाई, धोखा या और ही कुछ बातों की चर्चा होती है, तो हमें लगता है के हमारी कहानी सबसे ज्यादा दर्दनाक है। जब कहानी सुनानी होती है तो हम सारे वाल्मीकि और वेदव्यास बन जाते हैं। हमारी कहानी भी महाभारत सी ही होती है। एक कर्ण जैसा दोस्त होता है। शकुनि जैसे कुछ लोग होते हैं, धृतराष्ट्र जैसे पक्षपाती पिता होते हैं। और दुर्योधन जैसा पुत्र। अर्जुन जैसे एकाग्र भी होते हैं कुछ लोग और भीम से बलशाली भी। लेकिन जो नहीं है वो है युधिष्ठिर जैसे सत्यवादी, द्रौपदी जैसी स्त्री, और स्वंम भगवान श्री कृष्णा जैसे सारथी।
लेकिन इन सब के परे हम एक लिखी हुई कहानी के किरदार ही तो हैं, बस मंच पर किसी को ज्यादा वक्त मिलता है तो किसी को कम। वक्त कम मिले या ज्यादा, इस से तालियों को फर्क नही पड़ता, कम वक्त में भी बेहतर किरदार निभाने वाला ही सफल होता है।

गुरुवार, 12 जुलाई 2018

गांधी की प्रासंगिकता

समूची दुनिया की नज़र में गांधी वह व्यक्ति हैं , जिन्होंने प्रथम दृष्टया अहिंसा के असम्भव से लगने वाले हथियार का अंग्रेजों की सत्ता के विरुद्ध बखूबी उपयोग किया । गांधी के विचार और उनकी जीवनशैली हमेशा से आदर्श समाज की कल्पना करने वालों के लिए प्रेरणास्रोत रहे हैं । जिस समय गांधी का भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से वास्ता नहीं पड़ा था , उसी दौर में उन्होंने हिन्द स्वराज नामक पुस्तिका में तमाम वैश्विक समस्याओं का समाधान कर दिया था । इन सभी समस्याओं की जड़ में लालच और हिंसा प्रमुख हैं । अपनी अनगिनत जायज नाजायज इच्छाओं की पूर्ति के लिए मनुष्य हर तिकड़म भिड़ाता है और  असफल होने की सूरत में वह क्रोध में जल उठता है और फिर किसी भी हद से गुजर जाने में संकोच नहीं करता ।  ऐसी स्थिति में गांधी के आदर्श समाज का निर्माण असम्भव है क्योंकि उसके लिए नैतिकता सबसे अहम है । समाज में ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है जो अहिंसा को कायरों का हथियार बताकर गांधी और उनकी पूरी विचारधारा को ही खारिज करने पर तुले हुए हैं । जबकि गांधी कहते हैं कि वह व्यक्ति जो अहिंसा के रास्ते पर चलते हुए संकटों का वीरता के साथ सामना करने में सक्षम है , वही इस रास्ते पर बिना लड़खड़ाए चल सकता है । आजतक ऐसा कोई व्यक्ति नहीं जन्मा है , जिसने कभी डर को न महसूस किया हो । परन्तु व्यक्ति का साहस जितना विशुद्ध होगा , उतना अधिक उसका जीवन भयमुक्त होगा । जब हम गांधी व उनके अनुयायियों की कल्पना करते हैं ; जिन्होंने बिना हथियार उठाए अंग्रेजों को भारत छोड़ने पर विवश कर दिया तो हम पाते हैं कि उनके शरीर भी हमारी ही तरह प्राण- पीड़ा के प्रति संवेदनशील थे लेकिन उन्होंने स्वतंत्रता के बड़े लक्ष्य को ध्यान में रखकर अपनी तमाम मुश्किलों पर विजय प्राप्त की । वे लोग अपने कई कार्यक्रमों में असफल भी हुए लेकिन उस असफलता ने उनके हृदय को इतने गहन रूप से प्रभावित किया , जितना शायद उनकी सफलता भी नहीं कर पाती । बढ़ते अनाचार , घटती सहनशीलता , नित दिन नए तरीकों से फैलती नफरत की भावना व आपसी वैमनस्य का उपचार गांधी जी रास्ते पर चलकर ही हो सकता है । अफ्रीका में तो नेल्सन मंडेला ने गांधी के दिखाए मार्ग पर चलकर अपने देश को तबाही के मार्ग पर जाने से बचा लिया लेकिन पता नहीं हम क्यों उन्हें राष्ट्रपिता का दर्जा देकर उनकी बातों को भूल गए ? गांधी की प्रासंगिकता बनाए रखने में ही भारत की भलाई है वरना विविधता में एकता का हमारा विश्वास पूर्णतः  खंडित हो जाएगा ।
   ऋत्विज झा

सोमवार, 9 जुलाई 2018

हिन्दू, हिंदुत्व और हिंदुस्तान

हिन्दू, हिदुत्व और हिंदुस्तान के बीच कुछ कमज़र्फ लोग हैं जो एक रिश्ता कायम करना चाहते हैं, जो हर छोटी- बड़ी बातों पर देश की जनता को जाती के नाम का खिलौना पकड़ा देते हैं । हाँ ताकि उनके गीले बिस्तर कोई न देख ले। Rape  हुए तो खबर आएगी के मुसलमान बच्ची के साथ  बलात्कार हुआ, किसी की हत्या कर दी गई तो शोर होगा कि हिन्दू भीड़ ने एक मुसलमान को मार दिया या फिर कुछ मुसलमानों ने हिन्दू को मार दिया।
घ्रणा और शर्म के सिवाए और कुछ नही सुझता मुझे । कल शाम एक पड़ोस के बच्चे से कुछ बात कर रहा था वो बच्चा करीब 8 साल का है और कक्षा 3 में पढ़ता है, उसके मुंह पे sketch pen का निसान था तो मैंने पूछा कि ये क्या है उस बच्चे ने कहा मेरे दोस्त ने लगा दिया, मैंने दोस्त का नाम पूछा तो उसका जवाब सुनने लायक था उसने कहा " वो मुस्लिम है उसका नाम अयूब है । मैं डर गया ये सुनकर, मैंने फ़िर पूछा कि तुम्हें कैसे पता के वो मुस्लिम है तो उसने कहा कि उसके नाम से ही पता लग गया । ह्म्म्म! एक 8 साल का बच्चा जिसको जाती और धर्म नही पता वो नाम से कह देता है कि कौन हिन्दू है और कौन मुसलमान। जिसको 17 का पहाड़ा याद नही होता वो अपने दोस्त हिन्दू और मुस्लिम देख कर बनाता है।
मैंने उस बच्चे को उसके जन्म से देखा है, इसलिए मैं उसके जवाब से डर गया, लेकिन गलती उसकी नही है, गलती है हमारी जो हमने ऐसा वातावरण बना रखा है। आज कभी भी भारत के No. 1 तथाकथित न्यूज़ चैनल पूरे दिन इसी पर बहस करते रहते हैं और तो और सारे मूर्ख लोग बड़े चाव से शो देखते हैं,
वो जो ये कहते हैं कि हिंदुस्तान हिंदुओं का है, उनकी बात सही है लेकिन क्या हम ये भूल जाएं के जितना खून हिन्दुयों ने स्वतन्त्रता में बहाया उतना ही मुसलमानों ने भी बहाया । जेल अगर असफाकउल्लाह गए तो उनके जाने के गम में रामप्रसाद बिस्मिल भी खूब रोए । हम आज एक स्वतंत्र लोगतांत्रिक देश में रहते हैं जिसको सब ने मिल कर आज़ाद किया तो रहने का हक़ भी सब का है, अब ये बात और है कि कुछ खाली बर्तन आपस मे टकराकर शोर तो जरूर करेंगे। लेकिन आप सब को सावधान करता हूँ, उन से सावधान रहें जो किसी धर्म की रक्षा के लिए किसी का बुरा करे। मैं ये सब इसलिए नही लिख रहा के मैं एक हिन्दू हूँ, या फिर मुसलमानों का हिमायती होना चाहता हूँ, बस इसलिए लिख रहा हूँ क्योंकि चोट पहुचती है उस दिल मे जो अपने आपको हिन्दू, मुस्लिम, सिख और ईसाई से कहीं ऊपर एक हिंदुस्तानी समझता है।