मंगलवार, 24 जुलाई 2018

क़ाबू

क्या करें क़ाबू में नहीं आता ! कभी ज़ुबान तो कभी दिल, और जो कभी ये सब क़ाबू में आ जाये, तो हरकतें जवाब दे देती हैं। बहुत मुश्किल होता है किसी पर क़ाबू पाना, क्योंकि इसमें दिल, दिमाग और जिस्म का मिला जुला ताल मेल होता है। "मतलब" ऐसा कहने वाले लोग मिले होंगे, जो बात बात में "मतलब" शब्द का प्रयाग करते हैं। क्यों? बिल्कुल ठीक इस पर उनका क़ाबू नही है, वो चाहें न चाहें निकल ही जायेगा। क़ाबू किस पर पाया जाय? आदतों पर? इंसानो पर? जुबान पर? या फिर इन सब पर? सवाल भी मेरे और जवाब भी मेरे!!! अब ये मेरी आदत है। लेकिन इस पर काबू पाने की मेरी कोई ख़्वाहिश नहीं है। लेकिन जब बात आती है के क़ाबू किस पर पाया जाए तो जवाब होगा कि जो गलत है या जो हमें परेशान करते हैं, वो चाहे आदत हो या इंसान, लेकिन इनसब से हट के जुबान पर तो क़ाबू होना ही चाहिये। क्योंकि जीभ का दिया हुआ घाव कभी भरता नही है। 

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