शुक्रवार, 27 दिसंबर 2019

फ़रेब

लफ्ज़ थम जाते हों मगर दिल का दर्द छिपाया नहीं जा सकता। तआ'रूफ के लिए बस इतना कह दूं, जिन्हें भी खुदा ने यह सरमाया बख्श दी, सख्सियत ही बदल जाती है उनकी और सख्सियत बदलने की ताकत भी।
फरेब से दूरी कायम रखना जरा मुश्किल मसला है, इनके रफिकाने अंदाज से सभी राब्ता रखते हैं क्योंकि कुछ की तो ये मिल्कियत होती है, कुछ मेरे जैसे बंदे इस मर्ज का दवा करने में मसरूफ हैं। इस पेचीदा एल्गोरिथम को समझना जरा कठिन जान पड़ता है, क्योंकि इस व्यूह रचना को भेद पाने के लिए हमारा दिल और दिमाग दोनों मुख्तलिफ तरीके से काम करना चाहिए। पर ऐसे दर्द भरे पल बस तन्हाई के समय में कायम हो पाते हैं,और शायद तब तक काफी वक़्त बीत चुका होता है। ऐसे नाजुक हालात में हमारा दिमाग और दिल हमारे साथ नहीं होता, तब तक शायद हम भी फरेब सीख चुके होते हैं, खुद से फरेब करना।
इश्क़ में तफरी करता हुआ आपका दिल अगर कहीं एकांत ढूंढे, आपके दिल की चुभन खामोशियां कायम करे और दिमाग पे हावी हो जाए तो समझ जाए कि मसला हो गया है,आप चपेट में आ गए हैं इन कमबख्त के। ऐसे नाजुक वक़्त में भी कुछ लोग तो बस खुद को तसल्ली देते हैं सब खैरियत होने की, पर हकीकत से वो अनजान भी नहीं होते। मेरे खयाल में उनकी कोई गलती नहीं है, चारो ओर इतना इत्मीनान जो दिखता है। भरम होना लाजमी है।
गलती हो जाती है हम बेचारों से की हम अंदर नहीं झांक के देखते हैं। आखिर ऐसा हो भी क्यों ना, वो जो पाक ख़्वाब वाली दुनिया जो कायम की जाती है भला कौन बाहर निकालना चाहता है उससे। आकाश रंजन ने फरेब को बारीकी से पेश किया है

आयनों से यूं ही फरेब करता रहा हूं मैं,
ना चाहते हुए भी मुस्कुराता रहा हूं मैं।

खुद की खुदी को जानना होगा, वरना कुछ एक हसीन पल और कुछ पाक ख़्वाब के चक्कर में बेतहाशा दर्द ना झेलना पड़े।

बुधवार, 25 दिसंबर 2019

विपक्षप्रिय राजनेता : अटल

अभी जब मैं ये आलेख लिख रहा हूं,उस वक्त देश में तनाव,खिंचाव के चरम बिंदु पर अवस्थित आक्रोशपूर्ण, हिंसक माहौल है,जहां लोग इतने संवेदना-शून्य हो गये हैं कि एक-दूसरे का खून करने पर उतारु हैं। मैं इस सारी  समस्याओं का जङ लोगों का अहंकारी स्वभाव,संवादहीनता और एक-दूसरे के प्रति पाला गया पूर्वाग्रह से ग्रसित घृणा को मानता हूं।आज के इस जहरीले माहौल में यदि हमें किसी चीज की सर्वाधिक उपयोगी है तो वो है आपसी सद्भाव और परस्पर इज्जत और लगाव और इस सभी गुणों के आदर्श पुरुष हैं अटल बिहारी वाजपेयी।जो किसी भी प्रकार के मनमुटाव,विरोध से उपर उठकर लोगों का अपार स्नेह और सम्मान करते थे।
मुझे याद है,जब 2006 के संसद के शीतकालीन सत्र में भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी(मार्क्सवादी)के बङे नेता और तत्कालिन लोकसभा अध्यक्ष श्री सोमनाथ चटर्जी ने सदन में अनाज के बदले तेल घोटाला मामले के हंगामे में कुछ सरकारी कामकाज निपटा लिये।इससे खफा होकर रा.ज.ग. ने ना सिर्फ उनका बहिष्कार किया, बल्कि उन पर पक्षपात का आरोप लगाते हुए पत्र भी लिखा।उस समय अटलजी रा.ज.ग. के अध्यक्ष थे,इसलिए पत्र में पहला हस्ताक्षर भी उन्हीं का था।पत्र में वाजपेयी के हस्ताक्षर देखते ही सोमनाथ भावुक हो गये।उन्होने तत्काल देने का फैसला किया।
इसकी सूचना मिलते ही वाजपेयी दौङकर चटर्जी के पास पहुंचे और उन्हें ये कहकर इस्तीफा देने के लिये रोक दिया कि उन्होने स्वेच्छा से नहीं बल्कि पार्टी लाईन के तहत पत्र पर हस्ताक्षर किये हैं।सोमनाथ ने कहा कि अगर वाजपेयी को उनके इमानदारी पर शक है तो वह पल भर भी पद पर नहीं रहना चाहते,तब अटल जी ने कहा कि निजी तौर उन्हें चटर्जी की इमानदारी पर कोई शक नहीं है।इसका खुलासा खुद सोमनाथ चटर्जी ने अपना कार्यकाल पूर्ण होने के कुछ दिन पहले किया था।
इतने संवेदनशील थे अटलजी,ये जानते हुए सोमनाथ चटर्जी धुर विरोधी पार्टी के हैं, उनके इस्तीफे से अपने पार्टी के सदस्यों का मनोबल उंचा ही होता लेकिन अपने मतभेद को मनभेद में नहीं बदलने दिया।उनसे संवाद करने में तनिक भी देरी नहीं की।निजी अहंकार को कतई आङे नहीं आने दिया। आज के इस विपरीत समय में हमारे समाज को अटलजी की ये संवेदनशीलता और निश्चल स्नेह सीखने लायक है।


सोमवार, 23 दिसंबर 2019

अवलोकन

मेरे ही जैसे आपलोग को भी अपने व्हाट्सएप ग्रुप पर एक मैसेज आया होगा कभी न कभी। उस मैसेज में लिखा होता है " गांव में लोग गाय को पालते हैं और शहरों में गाय आवारा घूमती है। गांव में कुत्ते आवारा घूमते हैं और शहरों में पाले जाते हैं।"

न जाने क्यों इन बातों से बू आती है, सोच के सड़न की बू। ये सोच की शहर के लोगों की मानसिकता बिलकुल विपरीत है गांव के लोगों से। ये सोच की शहर के लोग गौ माता का अनादर करते हैं। ये मैसेज बहुत छोटी थी, मगर इस छोटे से मैसेज से एक दूरी है जो गहरा जाती है शहर और गांव के लोगों के रिश्तों के बीच।

दफ़्न होता है जहां आकर नई पीढ़ी का प्यार,
शहर की गलियों का वो गन्दा असर है ज़िन्दगी।

अदम गोंडवी जी की ये पंक्तियां है, खासा नाराज़ नज़र आते हैं शहरों में किये जाने वाले मोहब्बत से, खैर हर किसी की तरह सबकी अपनी एक सोच होती है उन्हें बदला नही जा सकता। लेकिन ये बात भी झुठलाई नही जा सकती के गांव में इश्क़ करना अपने और अपने मेहबूब की बाली देने जैसा है।
जब संविधान निर्माता इस अपना बात पर सर खपा रहे थे, की किसको किस तरह के अधिकार दिए जाएं, क्या गांव को एक ऐसा हिस्सा बना कर छोड़ दिया जाए जिसमे गांव के सरपंच का फैसला ही सर्वमान्य होगा। मतलब की वैसी ही व्यवस्था जैसी की चली आ रही थी। उस वक़्त भी एक मतभेद हुआ था गांधी जी और अम्बेडकर जी में, मतभेद ये था की गांधी जी इस पक्ष में थे की गांव अपने आपको परंपरागत तरीके से चलाए, जिसमे पांच और सरपंच की न्यायिक व्यवस्था हो। मगर समाज की कुरीतियों से, भेदभाव से बाबा साहेब पहले से ही परेशान थे और उन्हें ये बात पता थी की ये भेदभाव गांव में शहर से ज्यादा है इसलिए वो इसके पक्ष में नही थे। अगर इतिहास देखेंगे तो दिखेगा के गांव ही आगे चल के जब सम्पन्न होते हैं, जब रोजगार मिलने में आसानी होती है जब जीवन यापन के लिए किसी दूसरे शहर नही जाना पड़े तब वही गांव शहर हो जाया करते हैं। कोलकाता ऐसा ही एक उदाहरण है।

जब गांव के अलावा शहरों का निर्माण हुआ तभी से एक द्वन्द सा पैदा हो गया। द्वंद इस बात का की बेहतर कौन है? जब भी कभी तुलनायें होती हैं, समाज धरों में बंट जाती है। किसी को किसी से नफरत नही होती हाँ एक मन मोटाव पैदा हो जाता है। कोई अपने आपको कम नही समझता तभी तो गांव में अक्सर ये सुनने को मिलता है की "शहरी न बनो ज्यादा" और शहरों में ये कहा जाता है की " गंवार हो क्या"। ये एक दूरी है जिसका होना तय था, क्योंकि शहर और गांव अपने आप में दो बेहतरीन जगह है एक सुविधाओं से लैस है तो एक प्रकृति के बेहद नज़दीक। गायें गांव की जरूरत है और कुत्ते शहरों की। अपने जरूरतों की पूर्ति में कोई कमतर कैसे हो सकता है। मैं गांव से निकल कर शहर में रहने लग गया हूँ बस इसीलिए ये दूरी मुझे पसंद नही आती।

©vatsa_akash
Akash Ranjan
आकाश रंजन

शनिवार, 21 दिसंबर 2019

जायज सवाल

इन दिनों एक वीडियो काफी वायरल हो रहा है। जिसमे एक व्यक्ति एक मंच से कुछ बातें कर रहा है। उन बातों में नफरत है, किसी एक धर्म विशेष के लोगों के लिए। यहां तक कहा गया की हम (यानी के हिन्दू धर्म) खतरे में हैं, हमे इसे बचना है, और इसको बचाने के रास्ते मे जो कोई भी आएगा उसको छोड़ेंगे नही। उस व्यक्ति ने ये भी कहा की शाखा में जो शिक्षा दी जाती है उसके अलावा AK47 की भी शिक्षा दी जाए।
ये बातें किसी एक व्यक्ति विशेष की हो सकती है, इस विचारधारा को बनने में उसकी एक उम्र गई है, मैं ना तो किसी राजनीतिक पार्टी पे सवाल करना चाहता हूँ न ही संघ के लोगों पर।
मेरे सवाल है उन लोगों से जो उसकी बातों पर "जय श्री राम" के नारे लगा रहे थे। तालियां बजा कर समर्थन दे रहे थे। क्या हम किसी से इतनी नफरत करने लग गए हैं की जान लेने की बात करने लग जाये और उन घटिया बातों पर तालियां बजे?
हिंदुत्व पर आज सवाल उठने लगे गए हैं, श्री राम का नाम ले कर बहुत से काम हो रहे है। जब ये हाल देखता हूँ तो अपनी बचपन कि कहानी याद आ जाती है।

मैं जब छोटा था तब कुत्तों से बहुत डरता था, बैरहाल आज भी डर बरकार है। तो मैं जब भी कहीं अकेले जाता तो साथ मे पत्थर रख लेता, ये मानते हुए के क्या पता कहीं कुत्तों से मुकाबला न करना पड़ जाए, लेकिन कभी ऐसा हुआ नही। बल्कि इसके उलट मैं ही पहले पत्थर फेक कर अपने आप को सुरक्षित कर लेता था। एक रोज़ ये सब मेरी दादी ने देखा और मुझे बुला कर ये कहा की "कुत्तों को मत मारो"। बच्चे का सवाल तैयार था और डर भी "क्यों न मारे, काट लेगा तो"। मेरी दादी ने प्यार से समझाया की जब तक मैं उसे बहुत तंग न कर दूं तब तक वो मुझे कोई नुकसान नही पहुचायेगा। मैं फिर भी ज़िद करने लगा की नही काट लेगा फिर? दादी ने कहा की कुत्ते भगवान होते हैं, मैंने फिर पूछा कि कैसे भगवान होते हैं? तो मुझे बताया गया की काली मां के साथ जो एक कुत्ता होता है वो भैरव बाबा हैं, भगवान हैं। ये सुन के मैं डर गया की अब तक मैं भगवान पर पत्थर मरता था, अब डर कहो या कुछ और मैंने कुत्तों पर पत्थर फेंकने बंद कर दिया।
हिंदू धर्म ये है जिसमें जानवर भी भगवान स्वरूप हैं। ना जाने हम कबसे हिंसा की बात करने लग गए। किसी को दुख पहुचा कर किसी को मार कर जय श्री राम के नारे, न जाने हम क्यों लगाने लग गए? किसी धर्म विशेष को गाली देने से, मुझे नही पता के मेरे राम कितने बड़े हो जाएंगे।

इसके बाद मेरे कई दोस्त कहेंगे के मुस्लिम नेता भी तो ऐसा नफरत फैलाने वाला बयान देते हैं उनको क्यों नही कुछ कहते? तो जवाब ये रहा- के मैं हिन्दू धर्म मे पैदा हुआ, पला तो इसकी जानकारी ज्यादा है, मैं अपना घर देख रहा हूँ, और नफरत फैलने वाला किसी भी धर्म का हो अच्छा तो नही ही है वो।

बुधवार, 11 दिसंबर 2019

लूज़ टॉक की गहरी बात..

हारमोनियम वाले चच्चा काफी चर्चे में हैं आज कल, आपने काफी कुछ सुना भी होगा, के चच्चा बहुत बड़े वाले कॉमेडियन थे, हालांकि अब नही रहे। लूज़ टॉक भी चर्चे में है, काफी meme बन रहे हैं, अबे साले.... वालिद जो थे अब्बा हमारे.... वगेरा वगेरा। आप सोच रहे होंगे की ये बातें अब तो out of trend चला गया है फिर ये ब्लॉग क्यों?

लूज़ टॉक के हारमोनियम वाला एपिसोड के अलावा भी कई ऐसे एपिसोड हैं जो काफी मजेदार हैं। जिसमें काफी अच्छी कॉमेडी है, आज कल के standup जैसी नही के लोगों को हंसी आये तो गाली दे दी।
जरा एक दफा सोचिये, ये कलाकार पाकिस्तान के थे, पाकिस्तान के हालात कभी भी बेहतर नही थे, आर्मी का शाषण रहा है हमेशा से, मतलब की बोलने की आज़ादी तक नही, ऐसे में लूज़ टॉक करना और इतनी सफाई से सत्ता पर चोट करना आम बात नही। साथ ही पाकिस्तान की हुकूमत को दाद के उन्होंने इनके खिलाफ कोई करवाई नही की। जरा सोचिए अगर यही काम आज के हिंदुस्तान में हो रहा होता तो इनके साथ क्या कुछ नही हुआ होता। जबकी हमारे यहां सेना का शाषण भी नही, बोलने की आज़ादी भी है, मगर सरकारों में सुनने की क्षमता नही है। वो आलोचनाओं से डरने लगे हैं, और आलोचना करने वालों को डराने भी लगे हैं। ये महज़ आज की बात नही है जब ऐसा हो रहा है ये एमरजेंसी के दौरान भी हुआ था, मगर तब आलोचना करने वाले अपने हक़ के लिए लड़ रहे थे और आज घुटने टेक चुके हैं। अटल जी कहा करते थे "आलोचनाओं से ही व्यक्ति महान होता है" ।

सोमवार, 7 अक्टूबर 2019

नज़र

हेल्लो ! फ़ोन किया था?
हाँ!
बोलो...
कुछ पूछना था!
जी महोदया कंप्यूटर जी हाज़िर हैं... पूछिये!

(गम्भीर आवाज़ में)
नज़रें पहचान लेते हो क्या?
नज़रें? थोड़ा हिंदी में बोलना फिर से।
हे भगवान !! अरे मैं कह रही हूँ की तुम्हे नज़रों से पता लग जाता है की कौन तुमसे प्यार करता है और कौन फ़रेब? 
अच्छा ऐसा! हम्म हाँ पहचान लेता हूँ, लगभग।
सीखा दो न मुझे भी।
अरे ये तजुर्बे से आता है, इसकी कोई rule book थोड़ी न है।
नही !! फिर भी सीखा दो please...
अच्छा? चलो ठीक है ! मिलते हैं आज।
ओके! राजीव चौक आ जाओ ।

मैं रास्ते भर परेशान रहा के इम्प्रैशन जमाने के चक्कर मे "हाँ सीखा दूंगा" बोल तो दिया, लेकिन उसको समझाऊं कैसे? मैं राजीव चौक पहुंच गया, उसको फ़ोन किया..
कहाँ हो?
आ रही हूँ 5 min और लगेंगे! तुम पहुंच गए?
हाँ पहुंच गया। सुनो CCD वाले साइड आना वहीं खड़ा हूँ।
Hello! कहाँ पे हो? नज़र तो नही आ रहे।
CCD के पास खड़ा हूँ, अच्छा सुनो एक बात!
क्या हुआ अब?
फ़ोन काटो और अपनी एक सेल्फी लो बिल्कुल अभी जैसी हो वैसी ही।
अजीब हो तुम, क्यों ले सेल्फी?
अरे बाबा लो तो सही कुछ बताना है।
अच्छा रुको लेती हूँ ।
हाँ hello! हाँ ले लिया सेल्फी। अब ? 
अब जब मैं आऊँ तो मेरे फ़ोटो भी click करना, चेहरा पसंद न आये तो बाद में डिलीट कर देना लेकिन अभी के लिए एक बार pic ले लेना ठीक है।
हे भगवान! हम पागल हो जाएंगे । क्या सब करना पड़ रहा है। चलो ठीक है कर लुंगी click.

(ऑटो चाहिए madam ऑटो) 
मेट्रो में ऑटो वाले नही आते पागल....

(उसने फ़ोन निकाल के मेरी फ़ोटो क्लिक की)
अब खुश! अब बताओ के तुम मिलने क्यों बुलाये और ये फोटो फ़ोटो क्या चल रहा है?
आओ सब बताता हूँ। तुमने पूछा था न के नज़रें कैसे पहचानते हैं।
हाँ, तो उसके लिए फ़ोटो क्यों लेना जरूरी था।
फ़ोन निकालो...
हाँ लाओ इधर फ़ोन....
नही यहीं से देखो।
अच्छा! ये देखो जो तुम्हारी सेल्फी है इसमें क्या नज़र आ रहा है?
मेरे मुह पे पिम्पल्स है, और पीछे से एक लड़का घूर रहा है बस यही नज़र आ रहा है।
अरे भैया! आंखों में क्या नज़र आ रहा है?
कुछ भी तो नहीं।
गौर से देखो, ये जो आंखें हैं ना ये किसी को ढूंढ रही है, और अगर समझ नहीं आ रहा तो बस याद कर लो क्योंकि ये बातें तज़ुर्बे से आती है।
चलो ठीक है मैं अभी याद ही कर लेती हूँ।
और अब ये देखो ये मेरी तस्वीर..
हाँ इसमें मुझे एक पागल आदमी नज़र आ रहा है।
हाँ मैं भी एक पागल इंसान को ही देख के हंस रहा था। इस फ़ोटो में मेरी आँखों मे जो है वो प्यार है....  हाँ मतलब ये प्यार वाली आंखें हैं।
(ये बोलते बोलते मैंने अपना हाथ उसकी हाथों पे रख दिया, और कैमरा भी खोल के बैठा था। उसने मेरे हाथों को हटा दिया।)

क्या हो गया?
(मुस्कुराते हुए उसने कहा के कुछ भी तो नही.... मैंने उसकी ये बोलते हुए तस्वीर ले ली।)

सुनो एक फ़ोटो भेज रहा हूँ, व्हाट्सएप चेक कर लेना, वो तस्वीर जिसकी भी है, उसकी आँखों मे फ़रेब है।
(मैं ये बोल कर निकल गया, क्योंकि मुझे मालूम था की वो मेरे अलावा किसी और की भी है।)

रविवार, 25 अगस्त 2019

सब बाकी है अभी😁

"घोर कलयुग आ गया है बेटा, घोर कलयुग। सब के सब मतलबी हो गए हैं। इंसानियत जैसी तो कोई चीज बची ही नही।" अरे नही! ये मैं नही मानता। किसी के मुह से सुना था (अमा यार तभी तो quotes में डाल के लिखा है)।
किसी के मुहँ से ??? नही, सब के मुहँ से सुना है। आप भी तो बोलते होंगे ? आपकी भी तो शिकायतें होंगी, हैं ना आप भी परेशान किसी न किसी से? अगर जवाब हां है तो आगे पढ़ते रहिये और जवाब न है तो अभी के अभी इसे पढ़ना बन्द कर दीजिए।
लोग कहते हैं की इंसानियत खत्म हो गई है, मैं नही मानता, हाँ गिरावट आई है ये मानता हूँ। कई ऐसे हैं जो लोगों को सड़क पर मरता छोड़ देते हैं और कई ऐसे हैं जो उनको हस्पताल पहुंचाते हैं। जब घर मे बचा खाना हमारी माँ काम वाली को देती है तो कहती है की अपने बच्चों को खिला देना। आप अपने घर के बाहर कटोरे में पानी तो रखते होंगे उस अनजान चिड़िया के लिए। बस स्टैंड पर "fight with cancer" वाले डोनेशन बॉक्स में ₹10 तो गिराए होंगे न आपने, बिना सोचे समझे। आपने भी उसके बस में सो जाने पर उसके सर के पास हाथ रखा होगा ताकि उन्हें चोट न आये। ये वो तमाम ऐसे काम हैं जो मैं और आप करते हैं, बिना ये सोचे के हम इंसानियत बचा रहे हैं। असल मे हम कर वही रहे होते हैं। क्योंकि इन तमाम कामों के दरमियान हम किसी की शिकायत नही करते बल्कि मात्र वो काम करते हैं, जो जरूरी होता है। मुश्किलें हैं और होंगी भी मगर नज़रिया अलग होना चाहिए। इंसानियत बाकी है और फल फूल रही है, आप भी योगदान दे रहे हैं, इसके लिए मुबारक हो और अगर अब तक ऐसा कुछ नही किया जिस से किसी के चेहरे पे खुशी आई हो तो मियां अब भी देर नही हुई। अपनी खुशियों के साथ तो सब जी लेते हैं, दूसरों को खुशियां देने वाला बड़ा होता है।

सोमवार, 12 अगस्त 2019

इंतज़ार

मैं - अरे झा जी आज कितनी भर्तियां हुई है?
अखिलेश झा - अरे बेटा कैसे हो ? कैसे आना हुआ ?
मैं - बस ऐसे ही गुज़र रहा था तो सोचा मिलता चलूँ !
अखिलेश झा- आज का दिन बड़ा अच्छा है, कोई भर्ती नहीं हुआ है आज, बहुत खुश हूँ मैं तो आज। 
मैं - क्या बात है वाह !!!!
 

"अरे क्या कर रहे हो इधर ले आओ सामान, हाँ रखो यहाँ पे " (सूट बूट में एक नौजवान वृद्धा आश्रम में अपनी माँ को लिए आता है  )

अखिलेश झा- लीजिये रंजन साहब, हो गया दिन ख़राब, आ गया एक और बेटा जिसकी नौकरी विलायत में लगी होगी। (झा जी ने ये बात बड़ी खीज में आ के बोला था )

"यहाँ का इंचार्ज कौन है ?" (उस नौजवान ने पूछा)
मैं हूँ इंचार्ज ! अखिलेश झा।

ये सुनते है वो नौजवान, झा जी की तरफ बढ़ा और बोला
"झा जी इनको कुछ दिन के लिए यहाँ रखना है, जब इनका visa लग जायेगा तो इन्हें भी ले जाऊँगा अपने साथ, बस तब तक के लिए यहाँ रख लेते आप तो..... "
अखिलेश झा- जी बिलकुल ! हमारा तो काम ही यही है।  आप वहां जाइये और पेपर्स पर sign  कर दीजिये।

"इतनी जल्दी में आज तक कोई अपनी माँ को छोड़ने नहीं आया था।  ये व्यक्ति अलग ही किस्म की हड़बड़ाहट में था मनो उसे जल्दी से सब कुछ खत्म करना हो।  उसकी आँखों में न माँ को छोड़ जाने का गम था न ही विदेश की नौकरी की ख़ुशी। बस एक हड़बड़ाहट थी उसमे। "
झा जी ने मेरी और देखा और बड़ी व्यंग्यात्मक हसी वाली नज़रों से मानो ये बोला हो की देखो तुम्हारी नज़र लग गई।


मैंने भी हाथ बता दिया और नीरजा दीदी को (जो की अभी अभी आई थी) उनको उनका कमरा दिखा दिया और बाकि माँ जो अपनी विदेश वाले बच्चों का इंतज़ार कर रहे हैं उन से मिलवा भी दिया।

झा जी पिछले 23 साल से यहाँ के इंचार्ज हैं, अब तो ये जेब देख कर पैसे गिन लें, इतना ज्यादा इनका तज़ुर्बा है।

मैं वापस अपने घर जाने लगा था तभी झा जी ने आवाज़ लगाई।  आवाज़ डरावनी थी।  शयद किसी का इंतज़ार ख़तम हो गया, वो जो कल बीमार थी, लगता है आज.......
मैं जब पंहुचा तो मेरा शक सही निकला।
"ये आंखें आज भी खुली रह गई बेटे के वापस आने के इंतज़ार में" मगर शायद नियति को यही मंजूर हो।
हमने बहुत कोशिश की तब जा कर उनके बेटे को फ़ोन लगा जिसने ये कह के बात टाल दी की उसको छुट्टी नहीं मिलेगी।
मैंने  हतास नज़रों  से झा जी के तरफ देखा, वो गुस्से में थे।
मैंने कहा "कोई इतना कैसे गिर सकता है, जो माँ को आग देने भी नहीं आना चाहता" |
"ये पेड़ के सूखे हुए पत्ते हैं साहब, ये सिर्फ गिर सकते हैं "
झा जी की इन बातों में उनके बरसों का तजुर्बा नज़र आता है और जो छुपा हुआ है वो है गुस्सा।



न जाने हर रोज कितने ही माँ बाप अपने ही घरों से बेघर हो जाते हैं।  इस उम्मीद में की उनकी बच्चों की जिंदगी का सवाल है। "वो आँखें हर पल इसी इंतज़ार में रहती हैं की न जाने कब उसका बेटा आएगा और उनको वहां से निकाल कर ले जायेगा" मगर 100 लोगों में से सिर्फ 3 लोग ही घर जा पते हैं बाकी सब की जिंदगी इंतज़ार में ही ख़त्म हो जाती है।

कभी अगर वक़्त मिले तो सोचियेगा की आपके माता पिता ने आपके लिए कितना किया है, और जब कभी ऐसा ख्याल आए तो अपने आप को अपनी औकात दिखा दीजियेगा शायद हौसले कमजोर पड़ जाएँ आपके।


गुरुवार, 25 जुलाई 2019

लकीर

वो कभी कभार अकेले में बैठ कर अपनी हाथों की लकीरों को लाचार हो कर निहारता रहता था।
"हाँ मिल गई!  यही तो वो लकीर थी। हाँ पंडित जी ने तो बोल था की अगर ये वाली लकीर जब आपस मे मिल जाएगी तब सब ठीक हो जाएगा। हाँ बस अब थोड़ा सा ही तो रहता है, कुछ दिन में ये बढ़ कर आपस मे मिल ही जाएगी। फिर सब ठीक हो जाएगा"।

पीठ पर  एक डंटा पड़ता है पीछे मुड़ कर देखा तो पुलिस वाला जोर जोर से चिल्ला कर कह रहा था, चलो निकलो यहां से!!!
पार्क में भीख मांगना मना है।

जब आपके न चाहते हुए भी आपको लगातार संघर्ष करना पड़े तो ये मत देखो के "कितना संघर्ष किया" ये देखो के कितना बाकी है।
"क्योंकि जब मंज़िल का पता लग जाता है तो रास्ते छोटे हो जाते हैं।"

गुरुवार, 18 जुलाई 2019

उम्मीद

आज तक की अपनी जिंदगी में कभी मुश्किलों से भागा नहीं, मगर आज पहली बार ऐसा लग रहा है के "काश इन मुश्किलों से समझौता हो जाता " | कभी कभार लगता है मानो रेत दबा रखा हो हाथों में, लाख चाहो! फिसल ही जाती है | न तो ख़ुशी है किसी चीज के होने का और ना गम है सब कुछ खो जाने का, हाँ एक डर है सबकुछ होते हुए भी पास कुछ न होने का | अपने सामने सब कुछ फिसलता देख रहा हूँ, और उनको रोक पाने की हर कोशिश नाकाम सी होती जा रही है | कुछ आँखे हर वक़्त गीली होना चाहती है मगर जो दुःख में है वो न रो पड़े इसकेलिए उसे हंसना पड़ता है, परिवार की सबसे कमजोर कड़ी को ढाल बन के खड़ा होना पड़ता है, "क्यूंकि शायद ये वक़्त हमारा नहीं है "|


रविवार, 28 अप्रैल 2019

चाँद का दीदार?

क्लास 9 बजे से थी। मैं 8.30 में बस स्टॉप आ गया, 8.15 वाली बस निकल चुकी थी,अच्छी बस थी,जल्दी पहुंचा देती थी, लेट तो था ही, सो जल्दी से दूसरी बस में चढा, बस लगभग खाली थी, कोलकाता में यह "चमत्कार" जैसा ही था, विंडो सीट पकड़ी, आँखे बंद की, ईयर फोन लगाए, AR REHMAN का तुम तक तुम तक लगाया, हाँ वही.. कुन्दन वाला.. और बस.. फील ले ही रहा था, कि बस ने ब्रेक मारी, इतनी जोर से ब्रेक क्यु मारते हैं, पता नहीं.. आँखे खुली,सामने देखा.. ब्लैक चस्मा.. पीली ड्रेस.. ब्लू स्टॉल.. स्टॉल से पूरा फेस ढका हुआ (बिल्कुल डाकू जैसे), बस आँखे बची थी, पर उसपे भी काला चश्मा चढ़ा था। एक नजर में तो लगा कि भाई है क्या ये.. कितनी सुंदर है। वो मेरे आगे वाली सीट पर बैठी, ठीक मेरे आगे, विंडो सीट .. स्टॉल हटाया, बालों से cluter हटाया, हाँ जो भी बोलते हैं उसको! क्लेचर या क्लचर,पता नहीं, बस हटाया उसको.. थोरा बालों को बिखराया, कुछ बाल मेरे भी हाथ पर आए, मैंने हाथ हटा लिया। जब से वो बस में आई थी एक अलग से खुशबू थी हर तरह, पता नहीं  यार कौन सा पर्फ्यूम था। मानो जैसे कि पूरा कोलकाता ही महक उठा हो। कलकत्ता में खाली बस, इतना सुहाना मौसम और ऊपर से ये पल, ऐसा लग रहा था मानो कोई ख़्वाब मुकम्मल हो गया हो। फिर उसने अपने बालों को एक साइड किया, एक बात जरा गौर करे! उसके गले पर कोई तिल विल नहीं था। मैं उसे देखना चाह रहा था, बस बार बार बाकी पैसेंजर के लिए रुक रही थी, चल रही थी, मेरे फ़ोन में गाना भी अभी तक बज ही रहा था, लेकिन अब ईयर फोन कान में नहीं थे। थोरी देर बाद साइड पर्स लटकाए कंडक्टर साहब आ गए, उन्होने बोला टिकिट। चुकी वो मेरे से एक सीट आगे बैठी थी, तो पहले उसी के पास गए, उसने 9 रुपए का टिकिट लिया, लेकिन अफसोस पता नहीं चल पाया कि उसे उतरना कहा है। अब चेहरे का दीदार करने के लिए या तो उसे सीट से उठ कर गेट तक जाना था, या मुझे, लेकिन मेरा तो स्टॉप आया भी नहीं था। बोहोत कोशिश कर रहा था कि एक दीदार हो सके। मैं बेताब था, मियां भाई के जैसे चांद को देखने के लिए, लेकिन वो भी ईद का चांद निकली, बहुत इंतेज़ार करवा रही थी.....
हाँ तो मैं कहाँ था ? उसने ₹9 का टिकिट लिया, मुझे जहां जाना था उसका भाड़ा 10 रुपये था, मुझे लगा कि चलो अच्छा है उसका टिकिट 9 का है और मेरा 10 का, तो वो ही पहले उतरेगी! वाह वो पहले उतरेगी! अब लग रहा था मानो खुद ये रूप दिख के ईडी देगा, दीदार तो शायद अब मुकम्मल लग सा रहा था, बस बार बार अलग अलग स्टॉप पे रुकते गयी। लोग चढ़ते उतरते गए। सुबह का वक़्त था, तो चढ़ने वाले लोग ज्यादा थे। मेरी एक नज़र घड़ी पर भी थी के कहीं ज्यादा लेट न हो जाऊं, बस धीरे धीरे अपने रंग में रंगने लगी, बस वाले ने आवाज लगायी, देखा तो मेरा स्टॉप आने वाला था। लेकिन वो अब तक बैठी ही थी, यार..! उसने तो 9 का ही टिकिट लिया था, मैंने तो 10 का, अच्छा अच्छा..! वो चढ़ी भी तो लेट से थी, यह कैसे भूल गया था मैं? ठीक Ranjhna के एक गाने तुम तक तुम तक, के लाइन (@##£@) के वक़्त ही वो चढ़ी थी, सोचा, चलो मैं ही चुपके से गेट से दीदार कर लूंगा, ये देखना भी तो जरूरी था कि सच मे वो ईद का ही चाँद है ना, मगर अफसोस बस अपने रंग में रंग चुकी थी, ढेर सारे ऑफिस के id कार्ड, स्कूल बैग, ऑफिस बैग के बीच से मैं अपनी नजरो को पार करना चाह रहा था, मेरी हालत उस football के खिलाड़ी के तरह की हो गई थी जिसको दूसरे पाले में घुस के सब से बचते बचाते एक goal करना होता है। oopps.. बस ने ब्रेक लगायी, मेरी नजरे अब भी पूरी शिद्दत से मेहनत कर रही थी, कि कंडक्टर भैया ने बोला " ki dada.. nambe ta na"।  उसे देख पाने के जद्दोजहद छोड़ के मुझे नीचे उतरना पड़ा। नीचे उतरते ही मैंने उस सीट की तरफ देखा, अरे..! यह पीली से ब्लू कैसे हो गयी? कोई 30-35 साल का व्यक्ति अपने ऑफिस की id कार्ड लगाए बैठा हुआ था। शायद मेरे बाद वाले स्टॉप ही उसकी स्टॉप है! बस फिर से कोलकाता की तरह तेज़ चलने लगी। अब क्योंकि भीड़ ज्यादा होती है तो शायद वो गेट पे चली गई होगी ताकि अगले स्टॉप पे दिक्कत न हो। एक मन हुआ कि बस से भी तेज़ दौर कर अगले स्टॉप पर चला जाऊ, दीदार तो हो जाए कम से कम मगर आप भूल गए! पहली लाइन.. चुकि मैं लेट था। तो जरा जल्दी जाना था, मैं बस को टक टक निहारते रहा जब तक उसके पीछे दूसरी बस नही आ गई, और वो बस दिखनी बंद हो गयी, चुकि लेट हो रहा था तो मैं उस बस को ज्यादा देर तक निहार भी नहीं पाया.. ट्वीट ट्वीट .. "class is reschedule at 11am.."

मंगलवार, 12 फ़रवरी 2019

ज़िन्दगी?

कितना कमज़ोर हूँ न मैं। हर किसी पे चीखता चिल्लाता हूँ। कभी दोस्तों पे कभी घर वालों पे, कभी हालातों पे और कभी कभी तो अपने आप पे भी। इतना कमजोर हो गया हूँ कि अब डर लगने लगा है, की मेरी पसंदीदा चीज खो न जाये, कोई चुरा न ले। डर लगता है खुद को अकेला पा के। सहम जाता हूँ अपनी माज़ी और मुस्तकबिल को सोच के। ये बातें डरातीं है कि मेरे इस नाकामयाब जिंदगी के पीछे जो कुछ पोशीदा चेहरे हैं कहीं टूट के बिखर न जाये। इन्हीं खौफ की लार्ज़ीसों से भागता फिरता हूँ.....
कहीं दूर जा के अपने आप से ये कहना चाहता हूँ कि मैं निहायती कमज़ोर इंसान हूँ। ग़ुनाह करता फिरता हूँ, लोगों पर सवाल करता रहता हूँ।हारने का डर लगता है। हर चीज के बिखर जाने का डर लगता है। मगर इन तमाम मुश्किलों के बाबजूद मैं खड़ा सिर्फ इसलिए हूँ क्योंकि मेरे से कुछ उम्मीदें जुड़ी हैं। कुछ लोग हैं जो हमेशा मेरी जीत की कामना करते हैं। उन्हीं में से एक सख्स ने मुझ से कभी एक बात कही थी।
"मंज़िल तक पहुंचते-पहुंचते कभी ऐसा हो के, हिम्मत हार जाओ तो मुड़ कर पीछे देख लेना शायद आगे बढ़ने का हौसला मिल जाये"

सोमवार, 14 जनवरी 2019

समय

ये जो ज़िन्दगी है न एक चक्र में चलती, न उल्टी न सीधी बस कमबख्त गोल गोल ही घूमती है। ये वो बचपन, जवानी और बुढ़ापे वाला चक्र नहीं है, ये चक्र काल का है, उर्दू में वक़्त और तमीज से कही जाए तो समय। वो समय, जो फिरती है, और इसकी खासियत ये है, की इसकी भी कोई समय नही होती। और एक बात, ये वक़्त जो है इतिहास का गवाह भी होता है, (इसे फिल्मी न समझना बस निकल गया flow में)।
उसी "समय" से कुछ बात करनी थी, ( फ़िल्मी नही हो रहे हैं हम, भैया ) बात ये है के इस वक़्त के आगे किसी की चलती क्यों नहीं? न श्री कृष्णा की चली न राम जी की ( देखिए राम जी का नाम controversy के लिए नही कह रहे), न मोहम्मद की चली न ईसा मसीह की, गुरु गोविंद सिंह जी ने भी बहुत झेला ( देखिए "bhasha" secular है) सब के सब भगवान थे, चलो आपके लिए अल्लाह, किसी के GOD किसी के गुरु जी..... ये सब के सब भी वक़्त के चक्र में फसे थे, बुरे दिन देखे थे, भूखे रहे थे, बारिश में भींगे भी बर्फ में जमे भी लेकिन, झुकना पड़ा वक़्त के आगे ( सही बता रहे हैं, फिल्मी नही हुए हैं)...... 
ताने सुनने पड़े श्री कृष्णा को, जिनकी सुदर्शन पलक झपकते ही गाला उतार दे, मार्यादा पुरुषोत्तम पर नारी पर अत्त्याचार के आरोप लगे, अल्लाह के रसुल को भी यज़्ज़िद जैसे नीच इंसान ने घेरा था, अपनी साहिबजादों की कुर्बानी दी थी गुरु गोविन्द सिंह जी ने.....

ये सब भी वक़्त के आगे बेबस और लाचार थे ( इस बार फिल्मी हो गए हम) और वक़्त किसी के लिए नही रुकता हाँ ये बदलता जरूर है। 
अगर आप भी किसी मुशिकल में हैं, तो घबराइए नही, आपके पास खाने और रहने को तो है, और हाँ, दूसरों का दुख आपके दुख से बड़ा है । वक़्त की बात हो ग़ालिब न आये ऐसा हुआ है क्या (नही हुआ न तो आज भी नही होगा) 
" ए बुरे वक़्त !
ज़रा “अदब” से पेश आ !!
"वक़्त" नहीं लगता, 
वक़्त बदलने में।

बुधवार, 2 जनवरी 2019

मेरे भगवान!

अगले कुछ समय के लिए अपनी धार्मिक भावनाओं को जेब मे रहिएगा, हाथ जोड़ता हूँ 
"दृश्य पूजा घर का"
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"नमामि शमीशान निर्वाण रूपं,
विभुं व्यापकं ब्रम्ह्वेद स्वरूपं।
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं।
चिदाकाश माकाश वासं भजेयम।...."
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जय जय शिव शंकर क्या हाल चाल, सब ठीक है, अरे हैं आप तो ठीक ही होंगें आपकी कौनसी मंदिर बननी है, वो पता लगा आपको राम जी का अरे वही जिन्होनें आपकी आराधना की  नमामि शमीशान... ये गा कर याद आया? आ ही गया होगा, जानते हैं शिव जी बड़े मुश्किल में हैं वो, और हनुमान जी पर भी आफत आन पड़ी है। भोले बाबा कुछ बोलिये!!!
अरे राम जी आप भी इधर ही बहुत दुख हुआ सुन के.... वो कह रहे थे कि वो आपका घर बनने वाले हैं अयोध्या में सुनिए न अगर कभी दिक्कत हो! मतलब जब तक घर न बने हमारे घर रह लीजिये! किराया लगेगा बताए दे रहे हैं! बस हर दिन इन सफेद कपड़े वालों को सद्बुद्धि देते रहना भगवान।
अरे अरे!! हनुमान जी आप कहे विष्नु जी के पीछे छुप रहे हैं, अरे क्या हुआ जाने दीजिये न, क्या आप भी? ये लोग तो रावण जैसे हैं भी नही जिनसे लड़ने के लिए आपको आना पड़े अरे ये जैसे हैं उस से 100 गुना बेहतर तो वो महाभारत का शकुनि था! गुस्सा थूक दीजिये और गदा को भी रख दीजिए इसे क्यों फोकट में गंदा करेंगे! 
आप सब बस इंतेजार कीजिये वक़्त के बीतने का, क्योंकि इन दानव की हत्त्य सिर्फ वक़्त के हाथों होना ही नियति है, क्योंकि काल चल के हमारे बच्चे इन्हें याद नही करने वालो वो तो उनको याद करेंगे जिन्होंने सच मे रामराज्य बनाने की कोशिश की थी, अरे राम जी याद है ना ?
श्री राम बोले " हाँ याद है"
"जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी"

---पर्दा गिरता है---