सोमवार, 31 दिसंबर 2018

भरोसा

"खुदा ऐसे एहसास का नाम है,
रहे सामने और दिखाई न दे।"

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ये शेर बशीर साहब का है, अपनी खुदरंग शायरी के लिए बेहद मसहूर हैं।
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हर किसी के जिंदगी में एक वक्त आता है जब वो ये मानता है के भगवान जैसा कुछ होता नही है, फिर एक वक्त आता है जब हर बात पे भगवान याद आते हैं मतलब ये के हम इस बात से वाकिफ हो जाते हैं के कोई तो है जो हर एक चीज को उसके अस्तित्व से बंधे रखा है। इस बात का एहसास मुझे हो चुका था। हर अच्छे चीज में भगवान को शुक्रिया करता और जो कुछ बुरा होता उस से ये सोच के लड़ लेता के चलो एक नया अनुभव होगा, हरिवंश राय बच्चन की वो पंकिती की " मन का हो तो अच्छा और मन का ना हो तो और भी अच्छा, क्योंकि फिर वो भगवान के मन का होता है।" मैं इसी पे आंख मूंदे विस्वास करता था, और ये गलत भी नही है। 
मैं ये सब बातें कर क्यों रहा हूँ? क्योंकि आज साल के आखरी दिन जब एकांत में बैठे ये सोच रहा था की इस साल क्या बिगड़ा, क्या बना, क्या खोया और क्या हांसिल किया उसी दरमियान एक खयाल ये भी था की और सब साल के जैसे मैंने भगवान से ना तो कुछ मंगा और न ही उनको कटघरे में खड़ा किया जब भी कुछ गलत हुआ मेरे साथ। ये शायद आपके लिए बड़ी बात नही होगी पर ज़ेहनी तौर पे मेरा विकास हुआ है। मेरे जानने वाले जानते हैं के 2018 में एक ऐसा वाकया हुआ जिस से मैं पूरी तरह से टूट गया था, पहली बार उस इंसान को रोते देखा जिसने हमें कभी रोने नही दिया लेकिन इस मुश्किल में भी मैंने ऊपर वाले से शिकायत नही की क्योंकि मैं शायद पूरी तरह से उसे ठीक करने में लगा था, और यही बात मुझे समझनी थी आप सब को, कोशिश करो दोस्त ईश्वर, अल्लाह सिर्फ हौसले के लिए हैं।

नए साल की बधाई आप सबको, अपने ईश्वर को मत छोड़िएगा लेकिन सिर्फ उन्हीं के भरोसे भी मत रहिएगा। 
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" रास्ते में फिर वही पैरो का चक्कर आ गया,
जनवरी गुज़रा नहीं था और दिसम्बर आ गया..."
                                                  -Rahat Indoori
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मंगलवार, 25 दिसंबर 2018

अटल





"अगर आप सब बिहारी हैं, तो मैं "अटल" बिहारी हूँ।" ये वो वाक्य हुआ करता था जब पंडित जी बिहार आया करते थे। 2 से 85 तक का सफर सिर्फ 5 सालों में तय करना एक नए पार्टी के तौर पे अपने आप मे अनोखी बात थी। जवानी का जोश और मौजूद दौर की राजनीति को पलट कर रख देने की "अटल" चाहत ने पंडित अटल बिहारी वाजपेयी को "भारत रत्न" पंडित अटल बिहारी वाजपेयी बना दिया। लोग आलोचनाएं करते रहे, इल्ज़ाम लगते रहे, कट्टरता का दाग भी लगाया लेकिन अटल जी कहते रहे "आलोचनाओं से ही व्यक्ति महान होता है।"  वो इन्हें कट्टर कहते रहे और इधर अटल जी मंचों से दहाड़ते रहे और हर किसी को बताते रहे .....
" हिन्दू तन मन हिन्दू जीवन,
   रग रग हिन्दू मेरा परिचय।"
जितनी तीव्र उनकी बुद्धि थी उतनी ही ठहरी हुई उनकी वाणी। जब भी कुछ बोलते तो सोच समझ कर बोलते, जिह्वा पर इतना नियंत्रण कोई आसान बात नही। मेरे पिता राजनीति विज्ञान(political science) के विद्यार्थी थे, वे अक्सर कहा करते हैं की जो भी इंसान भारत का प्रधानमंत्री बनता है वो कोई आम इंसान नही होता है उसमें कोई दैवीय गुण और जब ये बात अटल जी के लिए बोली जाती है तो सच सा लगता है।
"प्रभु मुझे इतनी ऊंचाई कभी न देना, गैरो को गले न लगा सकूं, इतनी रुखाई कभी मत देना।"
ये शब्द भी अटल जी के हैं जो उनके किताब "मेरी इक्यावन कवितायें" की पहली प्रीस्ट पे है, ये दर्षाता है की वे ज़मीन से कितने जुड़े हुए थे।
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"चौराहे पर लुटता चीर,
प्यादे से पिट गया वज़ीर,
चलूँ आखरी चाल की बाज़ी,
छोड़ विरक्ति रचाऊँ मैं,
राह कौन सी जाऊं मैं"
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16 अगस्त 2018, वो दिन जब पूरा देश शोक में था, आपकी उम्र हो चुकी थी, 93 साल तक आपने देश की सेवा की लेकिन जब स्वर्ग को रवाना हो रहे थे तो लगा की कलम सूख गई हो नज़्म लिखते लिखते। मैं रोया नहीं, बस अपने दुःख को छुपाने के लिए इतना ही कर सका। आज 25 दिसंबर है आपका पहला जन्मदिन जिस में आप नही होंगे।
दुनिया मे ऐसे कम ही लोग कवि हुए हैं जिनकी देहावसान पर उनकी ही कविता कही जाती हो।
अटल जी की ये कविता जो जीवन को दिशा देती हैं-
ठन गई! मौत से ठन गई!
जूझने का मेरा इरादा न था,
मोड़ पर मिलेंगे इसका वादा न था,
रास्ता रोक कर वह खड़ी हो गई,
यूं लगा जिंदगी से बड़ी हो गई।
मौत की उमर क्या है?
दो पल भी नहीं, जिंदगी सिलसिला, आज कल की नहीं।
मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूं, लौटकर आऊंगा, कूच से क्यों डरूं?
तू दबे पांव, चोरी-छिपे से न आ, सामने वार कर फिर मुझे आजमा।
मौत से बेखबर, जिंदगी का सफ़र, शाम हर सुरमई,
रात बंसी का स्वर। बात ऐसी नहीं कि कोई ग़म ही नहीं, दर्द अपने-पराए कुछ कम भी नहीं।
प्यार इतना परायों से मुझको मिला, न अपनों से बाक़ी हैं कोई गिला।
हर चुनौती से दो हाथ मैंने किए, आंधियों में जलाए हैं बुझते दिए। आज झकझोरता तेज़ तूफ़ान है, नाव भंवरों की बांहों में मेहमान है।
पार पाने का क़ायम मगर हौसला,
देख तेवर तूफ़ां का,
तेवरी तन गई। मौत से ठन गई।
मैं ये तो नही जानता के आप की महानता का क्या राज है लेकिन इतना जरूर जनता हूँ की मेरी भाषा और मेरा व्यक्तित्व जो भी है जैसा भी है आप की देन है। मैं एकलव्य जितना महान शिष्य तो नही लेकिन आप द्रौण जितने महान जरूर हैं।


मंगलवार, 11 दिसंबर 2018

भूख

हर सुबह की तरह आज भी एक मंडली बानी थी । जिस मंडली के सदस्य छोटे मासूम बच्चे थे। चिंटू ने बताया के कल रात उसे ठीक से खाना भी नही मिला था, और रेयान को तो रात भर बुखार भी था। मनदीप के पैरों में आज चप्पल नही है, कल ट्रैन से उतरते वक़्त टूट गई थी शायद। आज फिर से खड़े हैं सब कतारों में अपनी अपनी बारी का इंतेज़ार कर रहे हैं। सबको काल का हिसाब भी देना है और आज किस किस area  में निकलना है ये भी बताया जा रहा है। इन बच्चों के पास न रहने को घर है और न ही किसी को पुकार कर "माँ" कहने का अधिकार, अनाथ हैं सब के सब। इनका परिवार अब चिंटू, मनदीप, रेयान, छोटू, गुड्डू, पूजा, और अशरफ़ में ही सीमित है। यही एक दूसरे के भाई भी हैं और बाप भी, बहने भी हैं और माँ भी। ये पढ़ना नही जानते, ठीक से रहना नही जानते। आप और मैं ट्रैनो में इन्हीं बच्चों से किनारा कर लेते हैं, जब ये प्लास्टि की बोतलें हम से ले के मुस्कुरा कर चल देते हैं। एक प्लास्टिक की बोतल न हमें खुशी देती है ना गम लेकिन शायद उनकी रात के खाने का इंतज़ाम कर देती है। लेकिन आज कुछ अलग हुआ है आज ये सब दोस्त एक ही साथ एक ही area में जाने वाले हैं। इन्हें नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से हज़रत निजामुद्दीन स्टेशन तक का काम मिला था। मैं वहीं नई दिल्ली स्टेशन पर अपनी एक दोस्त का इंतज़ार कर रहा था और उससे मिलने के बाद मेरी ट्रैन थी। बस इसी दरम्यान उनसब से मुलाकात हुई। आज सवारी बहुत ज्यादा थी, तो प्लास्टिक की बोतलें भी ज्यादा थीं शायद उन्हें हज़रत निज़ामुद्दीन तक जाना न पड़े। पूजा के पास एक लाल रंग की पुरानी फ्रॉक थी और उसे भी परियों जैसी एक सफेद फ्रॉक चाहिए थी और शायद उपर वाले ने सुन ली। उसे प्लेटफॉर्म पर एक सफेद फ्रॉक मिली थी, उसने जरा सा इंतेज़ार भी नही किया पुराने फ्रॉक के ऊपर ही सफेद वाली नई फ्रॉक पेहेन ली। उसकी आँखों में जो था शायद उसी को खुशी कहते हैं, सिर्फ एक फ्रॉक और उसके आंखों से 3 दिन से भूखे होने का दर्द खत्म हो गया। रेयान को कल रात बुखार था तो उसकी दवाइयों के पैसे पूजा ने ही दिए थे क्योंकि पूजा सबसे बड़ी थी 10 साल की थी। ये पूरी मंडली अपने पीठ पर एक थैली लटकाये हुए हैं जिन में प्लास्टिक की बोतलों को रखते हैं, और शाम को अपने सेठ के पास जा कर हिसाब करना होता है। कभी कभार पूरे पैसे नही मिलते, लेकिन आज का कारोबार अच्छा हुआ था। पैसे अच्छे मिलेंगें, आज सब अच्छे से खा पाएंगे। आज पूरे दिन की थकान के बाद रात के खाने के लिए मेहनत नही करनी होगी। पूजा ने अभी अभी अपने पास पैसे रखे हैं। ये सारे बच्चे उसे दीदी कहते हैं और माँ से ज्यादा प्यार करते हैं। भले ही पूजा 10 साल की हो लेकिन वो 6 बच्चों को संभालती है। कुछ पैसे ले कर वो आज उसी दुकान पर गई है जिस दुकान का खाना छोटू को बहुत पसंद है।
आज तो इनका दिन अच्छा गुजरा, लेकिन हर एक जैसा नही होता। क्या इनकी जिंदगी इसी चक्र में चलती रहेगी की बोतल जमा करो पैसे लो खाना खाओ वरना भूखे रहो?
पिछले दिनों जब देश के नेता रास्ट्रीय गीत पर बवाल कर रहे थे मान और सम्मान की बात कर रहे थे तब मैंने 4 लाइन लिखी थी,
"न गीत में, न गण में,
न मान में, न सम्मान में,
ये सब अपना बचपन ढूंढ रहे हैं,
सबके कूड़ेदान में।"

आज के बाद अगर आपको कोई बच्चा बोतल उठाता दिखे तो उनसे पूछ लेना के खाना खाया या नहीं और अगर न कह दे तो खिला देना मगर पैसे मत देना, वरना ये बच्चे भी भीख मांगना सिख जाएंगे। चाहे अनचाहे ये हमारी गंदगी को साफ करते हैं, और बहुत ज्यादा मेहनत करते हैं।
एक और अपील है आपसे के अगर आप इतने सक्षम हैं तो किसी एक बच्चे की स्कूल की पढ़ाई करवा देना।

अभी चुनाव आ रहे हैं ये नेता तुम्हें धर्म - जाति में बांटेंगे तुम उनसे "भूख" पर सवाल करना।

शनिवार, 8 दिसंबर 2018

एकालाप


मैं अगर शब्दों से घिरा न रहूँ तो शायद ये ज़िन्दगी की परेशानियों मार डालेगी मुझे। मेरे अल्फ़ाज़ गर पन्नो पे कुछ लिख न पाई तो शायद मेरा अस्तित्व ही मिट जाएगा। इस शायद में कितना कुछ छुपा है न? हार जाने का डर भी, अपने अल्फ़ाज़ों पे बहुत ज्यादा यकीन भी, या फिर मैं तय ही नही कर पा रहा हूँ........ की मेरे अल्फ़ाज़ों में दिक्कत है या आप की आंखों में? मेरे लफ्ज़ चुभते हैं आपको क्योंकि मुझे शायद बोलना नही आता, आप के जैसा बन के बात करना नही आता, मैं भोलेपन के पैराहन में लिपट कर नही रहना चाहता। शायद इसलिए आप के जैसे सलीके में नही रह पाता। फ़र्ज़ी हंसी और मतलब की दोस्ती करनी ही नही आती, नही!! मैं इतना भी मासूम नही हूँ बस ये जानता हूँ के दिल दुखाने से बेहतर है दिल का न लगाना। मैंने कोशिश की थी आप सब के जैसे बात करने की लेकिन लगा कि मैं खुद को खो दूंगा। मैं 100 की भीड़ में अकेला होता था जब आप जैसा बोलने की कोशिश की। मुझमे शायद तमीज़ न हो, या फिर मैं अगर आप जैसा नही हूँ तो, मैं खुद में जिंदा हूँ। मैं ऐसा ही हूँ, अगर पसंद हूँ तो साथ रखो नही तो फेक दो लेकिन मुझे बदलने को मत कहो।
अगर आप भी मानते हो कि मुझे बात करने का सलीका नही आता तो शायद आप भी उनलोगों में शामिल हो गए हैं जिन्हें मैं मुस्कुरा कर बस ये पूछता हूँ की "कैसे हो?"
न जवाब का इंतेजार करता हूँ और न ही उम्मीद रहती है । और शायद इसलिए ज़िन्दगी में चंद दोस्त ही बना पाया हूँ बाकी सब तो जानने वाले हैं, जो अगर कभी ज़िन्दगी के किसी मोड़ पे मिले तो मुस्कुरा कर पूछ लूंगा के "कैसे हो?"

शनिवार, 24 नवंबर 2018

कहाँ गई हमारी एकता ?

हिंदुस्तान आज इसलिए महान नहीं है के यहाँ असफाकउल्लाह खान या  भगत सिंह हुए बल्कि इसलिए महान है क्योंकि दोनों मिल कर देश के लिए लड़े थे। ज़रा सोचिये, अगर हम  उस वक़्त भी आज की तरह हिन्दू और मुस्लिम दो विपरीत कौम में बट जाते तो शायद हम आज भी अंग्रेजों की गुलामी कर रहे होते। मुझे समझ नहीं आता की जब हमें बनाने वाले ने हम में फ़र्क़ नहीं किया तो फिर हम कौन होते हैं फ़र्क़ बताने वाले।
  जब एक ही  जगह दो बर्तन होंगे तो टकराएंगे जरूर, पर इसका मतलब यह तो नहीं के उन में से एक को घर से ही निकल दें, नहीं बिलकुल नहीं। अगर हँसते - खेलते रहना है तो कभी उन्हें सहना होगा तो  कभी हमें। घर के निर्माण में खासा वक़्त लगता है पर उसे उजाड़ने में बस कुछ घंटे, हर बार,हिन्दू और मुस्लिम ये दो भाई आपस में मिल कर घर बनाना तो चाहते हैं, पर कुछ सर फिरे लोग हैं जो हर बार हमें तोड़ देते हैं। बड़ी विडम्बना है इस देश कि हमें नेता तोड़ते हैं और देशतगर्द जोड़ जाते है। हर बार कवि सम्मेलनों में, मुशायरों में ये बात कही जाता है "हिंदी, उर्दू  बहनें हैं" तो फिर हिंदी-उर्दू भाषी भाई-भाई क्यों नहीं हो पते ? सच्चाई तो ये है कि हम आज भी एक दूसरे से मिलना चाहते हैं, एक दूसरे के लिए खड़े होना चाहते हैं।  ये वही देश है जहाँ एक मुस्लमान होते हुए भी आलम इक़बाल ने लिखा था 
 " है राम के वजूद पे हिन्दोस्तां  को नाज़,
अहले नज़र समझते हैं उनको इमाम-ए-हिन्द "
एक हिन्दू होते हुए भी सुदर्शन फ़क़ीर उर्दू के ग़ज़ल लिखते हैं। जब मैं यह दावा करता हूँ कि हम एक दूसरे के लिए बने हैं, तो साबित करने के लिए दलील भी है। कुछ साल पहले BBC की हिंदी वेबसाइट नें एक सर्वे कराया लगभग 30 लाख हिन्दुओं नें वोट किया। सर्वे था कि हिन्दूओं के 10 सबसे पसंदीदा भजन कौन-कौन से हैं? और जब 3 माह बाद परिणाम आया तो  पता चला की असली हिंदुस्तान यही है, परिणाम यह था कि 10 में से पहले 6 भजन शकील बदायुनी के लिखे हुए थे और 4 साहिर लुधियानवी के, 10 के 10 भजन को संगीत नौसाद साहब ने दिया 10 के 10 भजन महबूब अली खान कि फिल्मो में थे, उन दसों भजनो को रूहानी आवाज़ दी मोहमद रफ़ी ने, और उन भजनो में अभिनय किया था युसूफ खान उर्फ दिलीप कुमार ने, असल में हमारा देश यह है न कि गोधरा या मुझफ्फरनगर।असल में यह वह देश है जहाँ राम हुए तो रहीम भी, तुलसीदास हुए तो कबीर भी अगर इस देश की मिट्ट ने कुंवर प्रताप को पला है तो इस देश ने सिराज़ुद्दौला को भी पाला।   भले ही ये दुनिया मुसलमानों का रूप कसाब और याकूब मेनन को मानती हो पर मैं उन मुसलमानों को जनता हूँ जो 26/11 में लड़े थे और कहा था के मर जायेंगे पर इन देहसतगर्दों को अपने कब्र में सोने नहीं देंगे मेरे लिए सच्चा मुस्लमान, रामेश्वरम के मल्लाह का बेटा है, डॉ. अब्दुल कलाम जिसके बदौलत आज भारत विश्व पाताल पर सर उठाये खड़ा है। 
 "जलते घर को देखने वालों 
फूस का छप्पर आप का है 
आग के पीछे तेज हवा है 
आगे मुक्कदर आप का है "
नवाज़ देओबंदी की ये शायरी, मैं उन फिरका परस्तों के लिए कह रहा हूँ, जो हर बार हमें लड़ा देते हैं सच कहता हूँ जिस दिन हम जाग गए न इन जैसों का जीना हराम हो जायेगा। यह देश वह देश है जहाँ सब को बराबरी का हक़ है, ये देश अदावतों का नहीं मोहबत्तों का देश है।  एक बार बस एक बार हम यह सोचें की हम आपस में लड़े क्यों.... और किसके कहने पर लड़े, शयद मसला हल हो जाए। मैंने ये ब्लॉग इसलिए नहीं लिखा की चुनाव लड़ना है या फिर मैं किसी धर्म का हिमायती बनना चाहता हूँ , बस बुरा लगता है इसलिए लिखा। 

गुरुवार, 15 नवंबर 2018

सफरनामा

सफर जिंदगी का, कब शुरू हुआ ये तो याद नहीं होगा आपको और कब खत्म हो जाये इसका भी अंदाजा नहीं होता हमें | हम तो बस अपना किरदार जी लेते हैं, कभी वो किरदार इतने बेहतरीन होते हैं के लोग उसे भूल नहीं पते और कभी कभार किरदार इतने  साधारण, के लोगों को याद ही नहीं रहता |

पिछले दिनों घर जाने के रस्ते जब मैं train में सफर कर रहा था तभी रस्ते में मेरे दोस्त ने मुझसे कहा के देखो इसको कहते हैं "अस्सी घाट" | अस्सी घाट एक घाट है जो के गंगा मैया के किनारे पे बना है, और ये उत्तर प्रदेश के वारणशी में है, वही उत्तर प्रदेश जहाँ जगहों के नाम बदले जा रहे हैं इनदिनों |

अस्सी घाट!! जिंदगी को करीब से समझने के लिए शयद सबसे मुनासिफ जगह है|  जहाँ एक तरफ धधकते आग में बेरूह हो चुके कुछ लाश जल रहे होते हैं, वहीँ दूसरी तरफ हर शाम गंगा आरती हो रही होती है, कुछ रुकता नहीं है | हाँ किसी के न रहने का दुःख तो होता है लेकिन तभी तक जब तक उसका कोई विकल्प ना मिल जाये | जिंदगी भी तो अस्सी घाट जैसी ही है जहाँ हमेशा सुख और दुःख नदी के दो किनारों पर एक साथ चलते रहते हैं |

शनिवार, 10 नवंबर 2018

उलझन

शायद तुम अब भी उतनी ही खूबसूरत होगी जितनी पहले थी, और उतनी ही चुप चाप सी रहने वाली? मैं शायद इसलिये कह रहा हूँ क्योंकि मैं अब तुम्हें नही जानता,हाँ तुम्हारे ही नाम का एक शख्स हर दिन रूबरू होता रहता है मुझसे। सुना है मुझ से बेहतर कोई और तुम्हें चाहने लगा है ...... या फिर मुझ में कोई कमी थी शायद। क्योंकि मेरा रक़ीब, मुझ से बेहतर हो ये मुझे बर्दास्त नहीं। 
कभी कभार खुद से ही परेशान हो जाता हूँ मैं क्योंकि, शायद जो मेरा कभी था ही नही मैं उस पर अपना अधिकार समझने लगता हूँ, और जब अधिकारों का हनन हो तो बर्दास्त किसे होता है? लेकिन फिर ये सोचता हूँ के मुझे चाहिए ही क्या था ??  की बस तुम खुश रहो, भले उस खुशी में मैं रहूँ न रहूँ, और आज जब तुम उसके साथ इतना खुश हो तो मैं क्यों दुखी हो रहा हूँ ? खुश होना चाहिए था मुझे ! लेकिन एक बार तुम ! हाँ तुम मात्र एक बार मेरी तरह से हो कर सोचो! ये सोचो कि मैं और तुम जो कभी साथ थे ही नही आज जब अलग हैं तो मैं इतना परेशान क्यों हूँ?
मुझे नही पता के ये ब्लॉग उस तक पहुच भी पाएगी या नही या फिर उन तमाम खातों की तरह तुम्हारे खुद के बनाये गुमनामी में खो जाएगी ? मैं तुम से अब भी उतनी ही मोहब्बत करता हूँ जितनी पहले किया करता था और आज भी तुम पर कोई दवाब नही डाल राहा लौट आने का, क्योंकि तुम्हारे रास्ते जिस से हो कर तुम अपनी मंज़िल तक जाओगी उस रास्ते मे शायद तुमने मेरे नाम का पत्थर भी नही छोड़ा होगा। शायद मेरी मोहब्बत इतनी ही सच्ची थी। 

शुक्रवार, 28 सितंबर 2018

शहीद-ए-आज़म

"मैं रब में विस्वास नहीं रखता, और ना ही उनको खुश करने की तरकीबें पर। मेरा मानना है की ईश्वर कमजोरों का सहारा है | "
ये विचार मेरे नहीं हैं ये विचार शहीद भगत सिंह के हैं। आप भी सोच रहे होंगे के आज अचानक भगत सिंह पर ब्लॉग क्यों? ना तो उनकी जयंती है और ना ही इन दिनों कोई बवाल हुआ भगत सिंह के नाम पे 樂।
कितना अजीब है ना, के हमें ये सोचना पड़ता है के किसी शहिद की चर्चा क्यों हो रही है ? अजीब है ना !  खैर ! ....
आपको याद न हो तो बता दूं के ये वही भगत सिंह हैं जिन्होंने काकोरी में ट्रेन लूटा था, ये वहीं हैं जिन्होंने असेम्बली में बम फेंक था, और याद अगर और धूमिल हो रही हो तो बता दूं के ये वही थे जिन्होंने हंसते हंसते फांसी पर लटकना स्वीकार किया बजाय इसके के माफी मांग के आज़ाद हो जाते।
माफी मांग सकते थे अंग्रेजी हुकूमत से लेकिन नही मांगी क्योंकि उन्हें विस्वास था के एक भगत सिंह के मरने पर 100 और भगत सिंह पैदा लेंगे। आज का दौर कुछ और ही है। हम तरक्की, खुशहाली, भाईचारा को कहीं ताक पर रख देते हैं और बदहाली को अपने पलकों पे बिठाये रखते हैं, हम न तो देश के लिए खुशी खुशी जान दे सकते हैं और न ही देश की तरक्की के काम आ सकते हैं, हाँ तरक्की के रास्ते में अपना पैर जरूर अड़ाते हैं।
कुर्बान होना सीखो फिर सवाल करना

रविवार, 23 सितंबर 2018

थककर बैठ गये क्या भाई?

 दिशा दीप्त हो उठी प्राप्त कर पुण्य-प्रकाश तुम्हारा 
लिखा जा चुका अनल-अक्षरों में इतिहास तुम्हारा
 जिस मिट्टी ने लहू पिया, वह फूल खिलाएगी ही
 अम्बर पर घन बन छाएगा ही उच्छवास तुम्हारा
 और अधिक ले जाँच, देवता इतना क्रूर नहीं है
 थककर बैठ गये क्या भाई? मंज़िल दूर नहीं है | 
                                                         -रामधारी सिंह दिनकर

इस अंक को  पढ़ने से पहले "अंतर " को पढ़िए |

मैंने पहले भी कहा था के संघर्षशील व्यक्ति अगर सफल होना चाहता है तो उसे  परिणाम का नहीं सोचना चाहिए | अगर कुछ सोचना ही है तो ये सोचना चाहिए के सफल होना कैसे है ?

1) जिज्ञासा (curiosity)-

अगर आप के अंदर ये गुण है तो इस  गुण में खुद को सिद्ध कर लीजिये क्यूंकि उत्सुकता अगर है तो कोई भी चीज सीखना मुश्किल नहीं हो सकता चाहे उम्र कोई भी हो | हमारी हिन्दू संस्कृति मे  उत्सुकता को बहुत बड़ा महत्वा दिया गया है | हमने देखा है के अर्जुन कितना उत्सुक था वो सब  जानने के लिए जिससे वो भयभीत था, और साथ ही साथ श्री  कृष्णा जो उत्तर देने में पारंगत थे | एक भयभीत इंसान की "जिज्ञासा" और उसका सवाल करना और तो और स्वयं भगवन का उत्तर देना बताता है के उत्सुकता में कितनी शक्ति है | अगर देखा जाये तो पौराणिक कथाओं में नचिकेता सब से जयादा उत्सुक बालक था जिसे स्वयं यमराज ने ज्ञान दिया और वापिस पृथ्वी पर भेजा था | 
लेकिन सिर्फ उत्सुक हो जाना सफलता की कुंजी नहीं है, उस उत्सुकता से पूछे गए सवाल का उत्तर ढूंढ़ने की आपकी भूख आपको सफल बनाएगी | 

2) धैर्य (patience)-

उजियारे में, अंधकार में,
कल कहार में, बीच धार में,
घोर घृणा में, पूत प्यार में,
क्षणिक जीत में, दीर्घ हार में,
जीवन के शत-शत आकर्षक,
अरमानों को ढलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।
   
हमारी सबसे बड़ी समस्या, के हम धैयरवान नहीं हैं | जरा जरा सी हार पर थक कर बैठ जाते हैं | अटल जी की ये कविता मुझे प्रेरणा देती है डटे रहने की | हम सब सामान्य मनुष्य हैं और विचिलित होना हमारा स्वभाव है परन्तु इस स्वभाव का बुरा प्रभाव ना पड़े हमें अपने आपको धैयरवान बनाना होगा, और खुद को  धैयरवान बनाना खुद के ऊपर है| 

3) नेतृत्वा (Leadership)-

नेतृत्य की छमता हर किसी में नहीं होती, और बिना नेतृत्वा के सफलता मिल पाना उतना ही मुश्किल है जितना के नदी का उल्टा बहना | कुछ लोग तो ये भी कहते हैं के नेतृत्वा की छमता को विकसित भी नहीं किया जा सकता परन्तु मैं इससे सहमत नहीं हूँ मेरा मानना है के अगर आप चाहें और आपको मौका मिले तो आप भी एक अच्छे अग्रलेख बन सकते हैं |



ये 3 कुंजियाँ अगर आपके हाथों में हैं तो सफलता के द्वार पर लगा विशाल सा दिखने वाला वह ताला आसानी से खुल सकता है | 





शनिवार, 15 सितंबर 2018

अंतर

डर लगता है क्या ??? हार जाने का ? क्या कभी परेशान  हुए हो ? कभी ऐसा लगा है के "मुझ से नही हो पायेगा" ? अगर आप का जवाब हाँ है तो कोई डरने की बात नही है ये औसतन हर तीसरे व्यक्ति की परेशानी है । असल मे हम लोग परिणाम से नही डरते बल्कि डरते हैं तो उस परिणाम तक पहुंचाने के असहज रास्तों से । हम कदम उठाते भी नही हैं और कह देते हैं के "हम से ना हो पायेगा" । बस यही एक बारीक सा अंतर पैदा कर देती है "सफलता" और "असफलता" के बीच में । सफल व्यक्ति सफल इसलिए है क्योंकि वो न तो परिणाम का सोचता है और न परिणाम की प्रतीक्षा करता है, वो बस अपना काम करता रहता है। जिस व्यक्ति ने ये समझ लिया के उसका वश सिर्फ कर्म पर है उसके परिणाम पर नही, वो व्यक्ति सदा सुखी रहेगा इसलिए खुश रहिये  ।
क्योंकि असहज हो कर काम करने से बेहतर है के काम करे ही ना । तो अगर सफल होना है तो ये सोचना छोड़ दो के कहीं असफल न हो जाएं। असफल होने का एक मात्र कारण है असफलता का डर । हम कोई काम इसलिए करना नही चाहते क्योंकि डरते हैं के हमारी हार ना हो जाये पर ये नही सोचते के अगर जीत गए तो कितना कुछ बदल जायेगा। हम सब को फूल की तरह महकना तो होता है लेकिन शूलों से परेज भी रखना चाहते है। आगर जगमगाना है तो जलना भी होगा बिना ये सोचे के परिणाम क्या होंगे।

रविवार, 2 सितंबर 2018

मेरे हीरो

हीरो !!! एक ऐसा शब्द जिसको सुनते ही हमारे मस्तिष्क में अलग अलग व्यक्तियों के चेहरे सामने आने लगते हैं, कभी सलमान कभी अक्षय,लेकिन एक नाम है, जो मैं और आप भूल जाते हैं | आज किसी बच्चे को उठा कर पूछ लो के बेटा तुम्हारा हीरो कौन है ? तो वो पक्का कहेगा के सलमान है या आमिर है, या  किसी और actor का नाम ले लेगा | अगर पूछो के वो इतना पसंद क्यों है तो पता है वो बच्चे जवाब क्या देते हैं ? कहते हैं के "देखा नहीं कभी कैसे अक्षय कुमार एक साथ 10 गुंडों से लड़ता है, नहीं देखा क सलमान कितनी अच्छी गीत गाता है"| ये विडम्बना है हमारी के हम हीरो उसे मानते हैं जो असल में हीरो है ही नहीं, वो तो मात्र एक अभिनेता है मात्र ACTOR है जो पैसों के लिए कैमरे के सामने ये सब करता है, कभी गीत सुनता है कभी गुंडों को मारता है, परन्तु इन सब में एक इंसान छूट जाता है जो के सच्चे माएनों में हीरो है, मेरे और आप सब के "पापा" ! आपका तो पता नहीं पर मेरे हीरो जरूर हैं मेरे पिता जी | हाँ भले ही गाना अच्छा ना गाते हों, भले गुंडों से लड़ते ना हों भले ही छोटी छोटी बातों पे डर जाते हों पर मेरे हीरो मेरे पापा ही हैं |
क्यूंकि जब भी मैं परेशां हुआ हूँ, जब भी कोई निर्णय लेने में असमर्थ हुआ हूँ, पापा ने बड़ी मीठी आवाज़ में समझाया और रह दिखाई है | गुंडों से तो भिड़ते नहीं देखा पर मेरे लिए पुरे ज़माने से लड़ते देखा है उनको, और हाँ मुझ तक अपनी एक घाव तक का जीकर पहुँचने नहीं दिया | मेरे पापा थोड़े डरपोक हैं, मुझ से कहते हैं के नई जगह है किसी से लड़ाई मत करना, वो डरते हैं के वो नहीं होंगे तो शायद कुछ गड़बड़ न हो जाये | मेरे खर्चों का हिसाब लेते हैं, मेरी बेतुकी मांगों पर फटकार भी लगते हैं | जैसा हीरो करता हैं न फिल्मों में बिकुल वैसे ही वो मेरा ध्यान रखते हैं |  फिल्मों के हीरो और मेरे पापा में एक अन्तर है के फिल्मों में हीरो कभी हारता नहीं है, पर मेरे पापा हारते हैं ताकि उनके बच्चे खुश हो जाएँ और बच्चों से हार कर भी वो खुद को जीता हुआ मानते हैं |

बुधवार, 15 अगस्त 2018

आज़ादी ?

*स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं*
72 वां स्वतंत्रता दिवस, एक लंबा सफर तय किया है भारत ने, हार कर भी और हर हार को जीत में बदल कर भी। इस देश ने वो भी वक़्त देखा के जब एक छोटे कद और बड़े इरादे रखने वाले शास्त्री जी ने आदेश दिया तो लोगों से उसे आदत बना लिया, जब आवाज़ लगाई तो लाहौर तक सब डर गए, ये भी देखा कि एक महिला प्रधान कैसे बनती है और उसके निर्णय कितने साहसी होते हैं, ये भी देखा के इस देश के जवानों ने कैसे हर बार दुश्मन को धूल चटा दी, ये भी देखा के सब ने मिल कर सरकार बनाई, ये भी देखा के किसी दल को इतनी बड़ी बहुमत मिली हो, ये भी देखा के कैसे हम हिंदुस्तानी आपस में लाडे और कैसे एक दूसरे के लिए मददगार साबित हुए। लेकिन इन सब के परे एक चीज, जो इन सब से ऊपर था वो था हमारा देश भारत !!!

आज हर कोई हाथ में चाय लिए ये कहता है के यार इस देश का क्या होगा? कोई अपना निर्णय सुनता है तो कोई अपनी राय दे देता है लेकिन काम कोई नही करता है। क्योंकि हमें मतलब ही नही है। हमें सैनिक चाहिए लेकिन वो पड़ोसी के घर से हो तो बेहतर होगा, भगत सिंह चाहिए लेकिन अपना बेटा नही कोई और, हमें भरत चाहिए लेकिन उसके सामने शेर रखने से डरते हैं। हम डरते हैं इसलिए बेतुके सवाल करते हैं, और इन बेतुके सवालों के जवाब देने में सरकारों को मजा बड़ा आता है। आज 72 साल होने को आये लेकिन जो सबसे बुनियादी चीज है, पानी हम उस समस्या का निदान नही कर पाए। आज जरा सी बारिश हो जाये तो चलने में नही बनता, घुटनो तक पानी भर जाता है, लेकिन ये मुद्दे नही होते हमारे, हमे तो जाती का धर्म का झुनझुना दे दो हम उसे ही बजा कर खुश हो लेते हैं। अरे!!!  पानी का क्या है मिले न मिले लेकिन मंदिर तो वहीं बनेगा!!! देश भगत हैं लेकिन वन्दे माताराम नही बोलेंगे, और जो न बोल तो पाकिस्तानी!! ये अच्छा हिसाब है साहब। आज गौ माता को बचाने को गौरक्षक तो है लेकिन लेकिन अपनी माता और बहनों के सुरक्षा के नाम पर सिर्फ इतना ही है के "घर जल्दी वापिस आ जाना"। "वो हिन्दू है तो मुसलमान से नफरत करता ही होगा जी" , "मुस्लिम के मरने पे इतना बवाल क्यों?", "ये भी आतंकी है", " तो फिर ये लोग भी भगवा आतंकी है" ........ हम हिन्दुतानी लोग आज कल ऐसी ही मानसिकता पाले बैठे हैं, और फिर चाय के टपरी पे कहेंगे कि देश का हाल बुरा है जी।
आज़ादी का दिन है आज। लेकिन हम आज भी आज़ाद नही हैं, हम अपने सोच के ग़ुलाम हैं और ये सोच की ग़ुलामी कहीं हमे फिर से पराधीनता की ओर न ले जाए। सिवाए इसके के हम दूसरों पे उंगलियां उठाते रहे बल्कि एक नेक कदम उठाने की जरूरत है, हर किसी को पहल करने की जरूरत है। 
सोच बदलने की जरूरत है। याद रहे न हिन्दू खतरे में है ना मुस्लिम पे क़यामत आने वाली है, लेकिन अगर जो न सम्भले तो कहीं ये शेर सच न हो जाये जो कभी इक़बाल ने लिखा था

"वतन की फ़िक्र कर नादान मुसीबत आने वाली है,
तेरी बर्बादियों के मश्वरे हैं आसमानों में,
न समझोगे तो मिट जाओगे ऐ हिंदुस्तान वालों 
तुम्हारी दास्ताँ तक भी न होगी दास्तानों में"

अब बात ये है के हिन्दुतान भी हमारा है और इसपे आने वाली मुसीबत भी, तो क्यों न साथ रह कर इनका सामना करें। एक मश्वरा ये भी के अपने प्रतिनिधियों से सवाल करें के उसने आपके लिए किया और आप उसे अपना कीमती मत क्यों दें। आज़ाद होइए दोस्तों अपनी सोच से तब जा कर कहीं आज़ादी का कोई मतलब बनेगा।
जय हिंद, वन्दे मातरं।

मंगलवार, 7 अगस्त 2018

मत चूको चौहान!

अरे नही!! मैं पृथ्वीराज चौहान की कहानी नहीं सुनाने वाला । मैं तो बस उस महान शासक की उपमा देना चाहता था, आज के मेरे भारत देश की पराधीन पत्रकारिता पे। मैं अक्सर ऐसी विषयों पर लिखता हूँ जो वक़्त के साथ धूमिल न हो जाये लेकिन, जो कुछ भी पिछले दिनों हुआ है, जिस तरह से लोकतंत्र के चौथे स्तंभ कहे जाने वाले "media" के जड़ों पर हमला हुआ है, जिस तरह कुछ पत्रकारों  एक private फॉर्म से सिर्फ इसलिए निकल दिए गए क्योंकि उनलोगों ने सच दिखाने की कोशिश की थी। मैंने सोचा कि अगर इस पर मेरी भी कलाम चुप रही तो क्या अंतर होगा मुझ मैं और उनमें जो मीडिया पर बेतुका लगाम लगाने की कोशिशें कर रहे हैं। आज सिर्फ दो तरह के चैनल रह गए हैं एक " भक्तों" के और एक "दुश्मनों" के । जो चैनल भक्तों के हैं अगर आप उसे देखो तो लगेगा के देश मे रामराज्य आ गया है ( रामराज्य को कृपया कट्टर हिन्दुत्व से न जोड़ें) । और जो अगर दुश्मनों के चैनल देख लिया तो लगेगा कि देश की हालत सीरिया से भी बुरी है, लेकिन जो असल हालात हैं वो इन सब से परे है, बस यही "सच" जो सच मे सच है, दिखाने की कोशिश की थी इनलोगों ने और अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा। मैंने सुरुआत में कहा था के "मत चूको चौहान"  असल में मैं चौहान उसे कह रहा हूँ जो सत्ता के जंजीरों में जकड़े पड़े है, लेकिन एक आग है, के सुलतान की सुल्तानी को खत्म जरूर की जा सकती है, बस जरूरत है तो कुछ चन्दबरदाईयों की, और हिम्मत! डटे रहने की । ये जो आज सत्ता के घमंड में चूर हैं, जो अपनी ही जड़ों पर दीमक लगा रहे हैं, ये भूल गए हैं कि इन्हें सत्ता तक पहुँचा सकने वाली ये मीडिया ही है। इन्हें ये पता नही है कि सांप पलट कर काटता जरूर है। साथ ही साथ एक गुज़ारिश है आप सब से के उनको देखना बन्द करो जो गलत खबर फैलाते हैं, और एक अनुरोध है कि पत्रकारिता एक पवित्र पेशा है तो इसे पवित्र ही रहने दें।

सोमवार, 30 जुलाई 2018

मेरा चेहरा

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 कल कुछ खरीदारी के लिया निकला था, सोचा ! के ये जो मेरा चेहरा है, कुछ पुराना सा हो गया है, और काफी मात भी खाने लगा है | तो मैं भी जा पहुंचा एक दुकान पर |  दुकानदार ने देखते ही कहा "अरे भाई  साहब आइये आइये आप को देख कर लग रहा है के आपको नया चेहरा चाहिए " | मैं भी सुन के हैरान रह गया के आखिर इसे पता कैसे चला ? फिर उस ने बताया के उसके पास 2 तरह के चेहरे हैं |
एक जो पारदर्शी है, जो बहुत जगहों पर मिलते भी नहीं, और तो और काफी महंगे हैं | फिर बिलकुल एक Salesman जैसे उसने कहा "और fashion  में भी नहीं है मालिक " | मैं कुछ और पूछता उस से पहले उसने दूसरा चेहरा भी दिखा दिया | उस ने बताया के इस चेहरे को वो "दोगला " चेहरा कहते हैं | "मालिक मेरी बात समझिये ये काफी fashion  में है " ऐसा कह के वो उस चेहरे की तरफदारी कर रहा था,उसने ये भी बताया  के "दोनों तरफ से इस्तेमाल कर सकते हैं" और मुझे अपनी जेब जयादा ढीली भी नहीं करनी पड़ेगी |  मैंने जेब में हाथ डाला तो पैसे उतने ही थे के मैं एक " दोगला "  चेहरा ही खरीद पाया | अब चेहरा तो खरीद लिया था, लेकिन उस पर जो फैशन वाले कपडे हैं, अब तो वो भी लेने पड़ेंगे | मैंने उसी दुकानदार से कहा के इस चेहरे क साथ जो fit अये वो कपडे भी दिखा दो और सुनो .... | मैं अपनी बात पूरी करता उस से पहले मेरे सामने उसने एक सफ़ेद कपडे का थाक रख दिया और बोलै "भाई साहब दोगले चेहरे पर fashion में अभी यही है, सफ़ेद कुर्ता "| उसने तो तुरंत एक offer  भी दे डाला के "भाई साहब अगर आप एक ही जैसे 3 कुर्ता लेते है तो हम आप को free  में थोड़ी सी मक्कारी और हरामखोरी देंगे "|  मैं भी fashion  और offer के जाल में फँस गया और 3 कुर्ते खरीद लिए | अब market  में मेरा रौब चलता है, लोग डर से सलाम करते हैं | लेकिन मेरी इज्जत कहीं खो सी गई है |


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गुरुवार, 26 जुलाई 2018

कारगिल और मैं

‌मेरे जन्म के तकरीबन एक साल बाद, हिंदुस्तान और  पाकिस्तान के बीच तनाव का माहौल बन गया था। खेर ये कोई नही बात नहीं थी। भारत और पाकिस्तान के बीच अक्सर ऐसा ही माहौल रहता है। लेकिन अबकी बार पाकिस्तान ने हद पार कर दी थी, उसने कारगिल पर  अपना अनैतिक कब्जा जमा लिया था। उसमें सिर्फ पाकिस्तानी फौज नहीं थे, बल्कि पाकिस्तान में पले और बढ़े सिरफिरे आतंकी भी थे। अटल बिहारी वाजपेयी जी की सरकार थी, और भारतीय सैनिकों में भारी गुस्सा, और इन दोनों के संयोग से लिया गया एक निर्णय, के भारत कारगिल से इन पाकिस्तानियों को खदेड़ देगा। भारतीय सैनिक के पास हो सकता है के तकनीक पुराने हों, पर उत्साह और देश पर मार मिटने का जज्बा इसे बहुत मजबूत बना देती है। इधर मेरी माँ मेरा ख्याल रख रही थी और उधर हमारे सैनिक निकल पड़े थे भारत माँ की अस्मिता बचाने।
      युद्ध शुरू हो चुका था, हमारी पकड़ मजबूत होती जा रही थी, और दुश्मनों का हौसला कमजोर। हम लड़ रहे थे, और बड़ी मजूबती से डटे थे। लेकिन हर सुबह सामना होता था एक बुरी खबर से, "आज फिर कुछ जवान शहीद हुए"। उधर देश के वीर जवान लड़ रहे थे, और इधर उनके परिवार वाले बस उनके लौटने का इन्तेजार।
"या तो तिरंगा फहरा के आऊंगा या तिरंगे में लिपट के आऊंगा, लेकिन मैं आऊंगा जरूर"
कुछ ऐसी भावनायों के साथ पूरा देश लड़ रहा था दुश्मनो से। लेकिन तभी फिर कुछ दिन बाद 26 जुलाई 1999 को खबर आई के भारत ने कारगिल पे तिरंगा लहरा दिया है। मेरी उम्र तकरीबन 1 साल कुछ महीने रही होगी, और मुझे उस वक़्त इन सब से कोई फर्क नही पड़ रहा था, और न कोई मेरे घर से  कारगिल लड़ा या शहीद हुआ, लेकिन आज भी जब कारगिल की कहानी सुनता हूँ तो सोचने पे मजबूर हो जाता हूँ कि आखिर कहां से लाते हैं हमारे सैनिक इतना सारा जज्बा इतना जुनून। मैं माँ से बात किये बगैर नही रह सकता और वो अपनी माँ अपने बच्चों को छोड़ अपनी जान की बाजी लगाने निकल पड़ते हैं। मुझे याद है मेरे माँ अक्सर मैथिली में एक गाना गाया करती थी,
"कारगिल सीमा मई पर द देलके जान हो...
धन्य धन्य भारत माँ के सुपुत्र जवान हो...."
आज भी जब इन दो पंक्तियों को गाता हूँ या याद करता हूँ तो आंखे नाम हो जाती है। चलिये आज सब मिल के उस जज्बे को सलाम करते हैं जिसने हमे आज तक दुश्मनों से बचा के रखा है।

मंगलवार, 24 जुलाई 2018

क़ाबू

क्या करें क़ाबू में नहीं आता ! कभी ज़ुबान तो कभी दिल, और जो कभी ये सब क़ाबू में आ जाये, तो हरकतें जवाब दे देती हैं। बहुत मुश्किल होता है किसी पर क़ाबू पाना, क्योंकि इसमें दिल, दिमाग और जिस्म का मिला जुला ताल मेल होता है। "मतलब" ऐसा कहने वाले लोग मिले होंगे, जो बात बात में "मतलब" शब्द का प्रयाग करते हैं। क्यों? बिल्कुल ठीक इस पर उनका क़ाबू नही है, वो चाहें न चाहें निकल ही जायेगा। क़ाबू किस पर पाया जाय? आदतों पर? इंसानो पर? जुबान पर? या फिर इन सब पर? सवाल भी मेरे और जवाब भी मेरे!!! अब ये मेरी आदत है। लेकिन इस पर काबू पाने की मेरी कोई ख़्वाहिश नहीं है। लेकिन जब बात आती है के क़ाबू किस पर पाया जाए तो जवाब होगा कि जो गलत है या जो हमें परेशान करते हैं, वो चाहे आदत हो या इंसान, लेकिन इनसब से हट के जुबान पर तो क़ाबू होना ही चाहिये। क्योंकि जीभ का दिया हुआ घाव कभी भरता नही है। 

शुक्रवार, 20 जुलाई 2018

पसंद 😁 और नापसंद 😞

मुझे ये अच्छा लगता है! वो अच्छा नही लगता! तुम बहुत अच्छे इंसान हो! वो बिल्कुल भी अच्छा नही है! मुझे ठंड का मोसम पसंद है! गर्मी अच्छी नही लगती! ........
ये तमाम ऐसी चीजें हैं जो हम अपनी ज़िंदगी में कहते और मानते आए हैं। हमें कुछ चीज पसंद होती है और कुछ चीजें नापसन्द होती है। किसी चीज को पसंद करना या उस से नफरत करना, ये तो हमारी सोच पर निर्भर करता है। हमारी प्राथमिकताओं पर निर्भर करता है, यदि निर्भर नही कर रहा होता तो जो चीज हमें आज पसंद है वो काल को नापसंद में नही बदलती, और सिर्फ प्राथमिकता को दोष क्यों दें ? कहीं न कहीं वक़्त भी दोषी है। वक़्त अगर बहुत ज्यादा गुजार दिया पसंद के साथ तो वही चीज उतनी ही जल्दी नापसंद भी हो जाती है। अरे नहीं!!! रुको जरा!! रह गया कुछ! किसी से बहुत ज्यादा की गई मोहब्बत उसकी एक गलती से बहुत ज्यादा नफरत में तब्दील हो जाती है। इसीलिए कहा जाता है
" अति अशक्ति से विरक्ति पैदा लेती है"
मतलब के जो हम पसंद या नापसंद करते हैं वो हमारी ही आदतों के कारण, चाहे वो प्राथमिकता का दोष हो या अत्यधिक मोहब्बत का, लेकिन किसी भी चीज का अच्छा या बुरा होना । हमारी अच्छाई और अंदर के बुराइयों पर निर्भर करती है, न के उस चीज पर। तो अब कभी कोई आप से नाराज़ हो तो समझ लेना के गलती उसकी है बशर्ते आप बदले न हों

रविवार, 15 जुलाई 2018

किस्से !

मेरे माज़ी के कुछ किस्से हैं, जो कहीं न कहीं मेरे मुस्तकबिल को बयां करते हैं। आप कल क्या होंगे ये बात इस पर भी निर्भर करता है कि आप कल क्या थे। किस्से !!! आप के भी तो होंगे? हर किसी के अपने अपने किस्से होते हैं, और उन किस्से के नायक भी वो खुद ही होते हैं। दुनियाँ से लड़ रहे होते हैं। लोगों को हँसा रहे होते हैं। अपने आपको एक एक्शन हीरो से कम नही समझते हैं हम अपनी किस्सो में। जब भी कहीं कोई दर्द, बेवफाई, धोखा या और ही कुछ बातों की चर्चा होती है, तो हमें लगता है के हमारी कहानी सबसे ज्यादा दर्दनाक है। जब कहानी सुनानी होती है तो हम सारे वाल्मीकि और वेदव्यास बन जाते हैं। हमारी कहानी भी महाभारत सी ही होती है। एक कर्ण जैसा दोस्त होता है। शकुनि जैसे कुछ लोग होते हैं, धृतराष्ट्र जैसे पक्षपाती पिता होते हैं। और दुर्योधन जैसा पुत्र। अर्जुन जैसे एकाग्र भी होते हैं कुछ लोग और भीम से बलशाली भी। लेकिन जो नहीं है वो है युधिष्ठिर जैसे सत्यवादी, द्रौपदी जैसी स्त्री, और स्वंम भगवान श्री कृष्णा जैसे सारथी।
लेकिन इन सब के परे हम एक लिखी हुई कहानी के किरदार ही तो हैं, बस मंच पर किसी को ज्यादा वक्त मिलता है तो किसी को कम। वक्त कम मिले या ज्यादा, इस से तालियों को फर्क नही पड़ता, कम वक्त में भी बेहतर किरदार निभाने वाला ही सफल होता है।

गुरुवार, 12 जुलाई 2018

गांधी की प्रासंगिकता

समूची दुनिया की नज़र में गांधी वह व्यक्ति हैं , जिन्होंने प्रथम दृष्टया अहिंसा के असम्भव से लगने वाले हथियार का अंग्रेजों की सत्ता के विरुद्ध बखूबी उपयोग किया । गांधी के विचार और उनकी जीवनशैली हमेशा से आदर्श समाज की कल्पना करने वालों के लिए प्रेरणास्रोत रहे हैं । जिस समय गांधी का भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से वास्ता नहीं पड़ा था , उसी दौर में उन्होंने हिन्द स्वराज नामक पुस्तिका में तमाम वैश्विक समस्याओं का समाधान कर दिया था । इन सभी समस्याओं की जड़ में लालच और हिंसा प्रमुख हैं । अपनी अनगिनत जायज नाजायज इच्छाओं की पूर्ति के लिए मनुष्य हर तिकड़म भिड़ाता है और  असफल होने की सूरत में वह क्रोध में जल उठता है और फिर किसी भी हद से गुजर जाने में संकोच नहीं करता ।  ऐसी स्थिति में गांधी के आदर्श समाज का निर्माण असम्भव है क्योंकि उसके लिए नैतिकता सबसे अहम है । समाज में ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है जो अहिंसा को कायरों का हथियार बताकर गांधी और उनकी पूरी विचारधारा को ही खारिज करने पर तुले हुए हैं । जबकि गांधी कहते हैं कि वह व्यक्ति जो अहिंसा के रास्ते पर चलते हुए संकटों का वीरता के साथ सामना करने में सक्षम है , वही इस रास्ते पर बिना लड़खड़ाए चल सकता है । आजतक ऐसा कोई व्यक्ति नहीं जन्मा है , जिसने कभी डर को न महसूस किया हो । परन्तु व्यक्ति का साहस जितना विशुद्ध होगा , उतना अधिक उसका जीवन भयमुक्त होगा । जब हम गांधी व उनके अनुयायियों की कल्पना करते हैं ; जिन्होंने बिना हथियार उठाए अंग्रेजों को भारत छोड़ने पर विवश कर दिया तो हम पाते हैं कि उनके शरीर भी हमारी ही तरह प्राण- पीड़ा के प्रति संवेदनशील थे लेकिन उन्होंने स्वतंत्रता के बड़े लक्ष्य को ध्यान में रखकर अपनी तमाम मुश्किलों पर विजय प्राप्त की । वे लोग अपने कई कार्यक्रमों में असफल भी हुए लेकिन उस असफलता ने उनके हृदय को इतने गहन रूप से प्रभावित किया , जितना शायद उनकी सफलता भी नहीं कर पाती । बढ़ते अनाचार , घटती सहनशीलता , नित दिन नए तरीकों से फैलती नफरत की भावना व आपसी वैमनस्य का उपचार गांधी जी रास्ते पर चलकर ही हो सकता है । अफ्रीका में तो नेल्सन मंडेला ने गांधी के दिखाए मार्ग पर चलकर अपने देश को तबाही के मार्ग पर जाने से बचा लिया लेकिन पता नहीं हम क्यों उन्हें राष्ट्रपिता का दर्जा देकर उनकी बातों को भूल गए ? गांधी की प्रासंगिकता बनाए रखने में ही भारत की भलाई है वरना विविधता में एकता का हमारा विश्वास पूर्णतः  खंडित हो जाएगा ।
   ऋत्विज झा

सोमवार, 9 जुलाई 2018

हिन्दू, हिंदुत्व और हिंदुस्तान

हिन्दू, हिदुत्व और हिंदुस्तान के बीच कुछ कमज़र्फ लोग हैं जो एक रिश्ता कायम करना चाहते हैं, जो हर छोटी- बड़ी बातों पर देश की जनता को जाती के नाम का खिलौना पकड़ा देते हैं । हाँ ताकि उनके गीले बिस्तर कोई न देख ले। Rape  हुए तो खबर आएगी के मुसलमान बच्ची के साथ  बलात्कार हुआ, किसी की हत्या कर दी गई तो शोर होगा कि हिन्दू भीड़ ने एक मुसलमान को मार दिया या फिर कुछ मुसलमानों ने हिन्दू को मार दिया।
घ्रणा और शर्म के सिवाए और कुछ नही सुझता मुझे । कल शाम एक पड़ोस के बच्चे से कुछ बात कर रहा था वो बच्चा करीब 8 साल का है और कक्षा 3 में पढ़ता है, उसके मुंह पे sketch pen का निसान था तो मैंने पूछा कि ये क्या है उस बच्चे ने कहा मेरे दोस्त ने लगा दिया, मैंने दोस्त का नाम पूछा तो उसका जवाब सुनने लायक था उसने कहा " वो मुस्लिम है उसका नाम अयूब है । मैं डर गया ये सुनकर, मैंने फ़िर पूछा कि तुम्हें कैसे पता के वो मुस्लिम है तो उसने कहा कि उसके नाम से ही पता लग गया । ह्म्म्म! एक 8 साल का बच्चा जिसको जाती और धर्म नही पता वो नाम से कह देता है कि कौन हिन्दू है और कौन मुसलमान। जिसको 17 का पहाड़ा याद नही होता वो अपने दोस्त हिन्दू और मुस्लिम देख कर बनाता है।
मैंने उस बच्चे को उसके जन्म से देखा है, इसलिए मैं उसके जवाब से डर गया, लेकिन गलती उसकी नही है, गलती है हमारी जो हमने ऐसा वातावरण बना रखा है। आज कभी भी भारत के No. 1 तथाकथित न्यूज़ चैनल पूरे दिन इसी पर बहस करते रहते हैं और तो और सारे मूर्ख लोग बड़े चाव से शो देखते हैं,
वो जो ये कहते हैं कि हिंदुस्तान हिंदुओं का है, उनकी बात सही है लेकिन क्या हम ये भूल जाएं के जितना खून हिन्दुयों ने स्वतन्त्रता में बहाया उतना ही मुसलमानों ने भी बहाया । जेल अगर असफाकउल्लाह गए तो उनके जाने के गम में रामप्रसाद बिस्मिल भी खूब रोए । हम आज एक स्वतंत्र लोगतांत्रिक देश में रहते हैं जिसको सब ने मिल कर आज़ाद किया तो रहने का हक़ भी सब का है, अब ये बात और है कि कुछ खाली बर्तन आपस मे टकराकर शोर तो जरूर करेंगे। लेकिन आप सब को सावधान करता हूँ, उन से सावधान रहें जो किसी धर्म की रक्षा के लिए किसी का बुरा करे। मैं ये सब इसलिए नही लिख रहा के मैं एक हिन्दू हूँ, या फिर मुसलमानों का हिमायती होना चाहता हूँ, बस इसलिए लिख रहा हूँ क्योंकि चोट पहुचती है उस दिल मे जो अपने आपको हिन्दू, मुस्लिम, सिख और ईसाई से कहीं ऊपर एक हिंदुस्तानी समझता है।